भगवान के दरबार में | Bhagvan Ke Darbar Mein

Bhagvan Ke Darbar Mein by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सायं-प्राथना-प्रवचन : ३ समन्वय प्र प्रहार मत हने दीजिए जगन्नायपुरी, २३ माच ›*५ सर्वोदय की दणि आप सव लोग जानते हैं कि हम सर्वोदय के विचारक कहलाते हैं और भूदान के काम में लगे हुए हैं ओर उसी के चितन में हमारा प्रतिदिन का समय जाता है । इसलिए पूछा जायगा कि इस प्रश्न को हम क्यो इतना महत्त्व दे रहे हैं. और तीन-तीन व्याख्यान क्यो दे रहे हैं, तो इसका उत्तर यह ইক্ষি অথ विपय सर्वोदिय के लिए ही नहों, वल्कि धर्-विचार के लिए भी, बहुत महत्त्व का दे। इसका ठीक निशुय हमारे मन मे न हो, तो फेवल धर्म ही नहीं, चल्कि सर्वोदय ही टूट ज्ञायगा। सान लीजिए कि हम देशामिमान की वात करते हैं, तो वह देश-प्रेम बहुत व्यापक चीज जुरूर है, पर मानवता की दृष्टि से वह भी छोटी, संकुचित होती हैं। पर जिसे हम धर्म-भावना कहते हैं, बह मानवता से छोटी चीज नहीं है, मानवता से बड़ी चीजु है। धर्म के नाम पर जब हम मानवता से भी छोटे वन जाते हैं, तो हम धम को भी संकुचित करते हैं और धर्म की जो मुख्य चीज़ है, उसे छोडते हैं। धार्मिक पुरुष की धर्म-भावना मे न सिफ मानव के लिए दी प्रेम होता है, संकोच होता है, वल्कि प्राणीमान्न के लिए प्रेस होता हे ओर असंकोच होता है । अपने- झपने सयाल से ओर सन के संतोप के लिए सनुष्य अलग-अलग उपासना फरते हैं। इस तरह उपासनाएँ अलग-अलग वन जाती है । उन उपासनाश्नो के मूल मे जो भक्ति है, वह्‌ सबसे बढ़ी चील है, सानवता से भी व्यापक है । लोग हमसे पूछे हैं कि




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