जय जीवन | Jai Jeevan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दिया और चचन दिया कि एक दिन आराम करने के बाद ( “मैं ঘন को इतने भर विश्राम की इजाजत जरूर दुगा”) वहु फिर इस किताब पर, प्रेस के लिए अ्ाद्धिरी पाण्डुलिपि तैयार करने के काम पर जुट जायेगा। वह किसी भी स्वस्थ आदमी के लिए पूरे तीन महीने का काम था; पर श्रोस्तोच्स्की ने उसे एक महीने मे करने का निश्चय किया। “मुझे रात को नींद तहीं आती,” उसने कहा, “इससे भी मदद मिलेगी। कई लोग अपने, रोग का इलाज आराम द्वारा करते है और कुछ लोग -काम द्वारा। वास्तव में काम द्वारा ही उसने अपना “इलाज! किया: सुबह नौ बजे से लेकर रात के दस, ग्यारह, कभी कभी बारह बजे तक, काम करता, बीच मे केवल थोड़ी थोड़ी दैर के लिए किसी किसी वक्त आराम कर लेता। उसके परिवार के लीग बड़ी चिन्ता के साथ यह्‌ सब देख रहे थे। वह सचमुच अपनी वची-खुची शक्तित होम कर रहा था। उन्होंने इसकी मिन्नतें की कि थोड़ी मुद्दत के लिए काम स्थग्रित कर दो और झाराम करो, पर वह विलम्ब की बात सुन तक न सकता था। बड़ी बेरहमी के स्राथ उसने अपने आपको जोते रखा और अपने सहायकों को भी, जिन्हे बहू अपने “सदरमकाम के कर्मचारी ” कहा करता था! इसके बिस्तर के साथ एक भेज्ञ लगी रहती थी। उसपर तथा कुर्सियों और सोफ़े पर पाण्डुलिपियों की प्रतिया पड़ी होती, जितपर इनके सम्पादकीं ने श्रपनी टिप्पणियां लिखी होतो! पत्ना पन्ना करके कामं श्रे बढ़ रहा था। पहले लेखक की रचना का मूल पाठ किया जाता ; फिर हर प्रति के एक एक पन्ने पर दी गयी टिप्पणियो का। अपने मन में एक एक शब्द, एक एक वाक्य को तौलते हुए ओोस्त्रोव्स्की कही शब्द बदलता , कहीं जोड़ता , कही काटता , और इस तरह उपन्यास का प्रा्धिरी रूप तैयार होने लगा। एक बात्त स्थिर करने के बाद व६ अपने सहायकों से और भी तेजी से काम करने का आग्रह करता: “* लगे रहो दोस्तो, लगे रहो!” यही उसकी एक मात्र मांग होती। दिन पर दिन बीतते रहे। यह कड़ा श्रम जारी रहा। इसे स्थगित किया जाता तो केवल भोजन के लिए, अद्भवारों और चिट्टियों को पढ़ने कै लिए, भौर प्रातः तथा साय॑ रेडियो पर ख़बरें सुनने के लिए। १५




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