ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थ माला | Gyanpith Mutri Granth Mala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रास्ताविक ११ भरतः भ्रादिपुराणमं क्वचित्‌ स्मृतियोसि भौर ब्राह्मणव्यवस्थासे प्रभावित होनेपर শী वह सांस्कृतिक तत्त्व मौजूद हं जो जेन संस्कृतिका भ्राधार हं ! वह हे भ्रहिसा সাবি व्रतं श्र्थात्‌ सदाचारकी मस्यताका । इसके कारण ही कों भो व्यक्ति उच्च ध्रौरभेष्ठकहा जा सकता हं । वे उस संद्धान्तिक बातको {कितने स्पष्ट शब्दोंमें लिखते हं--- “मनुष्यजातिरे कैव जातिनामोदयोद्भ वा । वृत्तिभेदाहिताद्‌ भेदात्‌ चातुविध्यमिहाइनूते ॥” (३५-४५) जाति नामकर्मके उदयसे एक हो मनुष्यजाति है। भ्राजोविकाके भेदसे ही बह ब्राह्मण श्रादि चार भदोंको प्राप्त हो जाती है । आदिपुराण और स्मृतियाँ-- प्रादिपुराणम ब्राह्मणोंकों इस विशेषाधिकार दिये गये हें-- १ अभ्रतिबालविद्या, २ कुलाबधि, ३ वर्णोत्तमत्व. ४ पात्रता, ५ सृष्टयधिकारिता, ६ व्यवहारे- शिता, ७ श्रवध्यत्व, = श्रदण्डघत्व, € मानाहेता भ्रौर १० प्रजासम्बन्धान्तर । (४०-१७५-७६) । इसम्‌ ब्राह्मणको श्रवध्यताका प्रतिपादन इस प्रकार किया ह-- “ब्राह्यणो हि गृणोत्कर्षान्नान्यतो वधमहंति 1 (४०- १६४) “सवैः प्राणी न हन्तव्यो ब्राह्मणस्तु विशेषतः 1 (४०-१६५) গাল गुणका उत्कषं होनेसे ब्राह्मणका वध नहीं होना चाहिये । समी प्राणो नहीं मारने चाहिये खासकर ब्राह्मण तो मारा ही नहीं जाना चाहिये । उसकी अ्रदण्डताका कारण देते हुए लिखा हे कि-- “परिहायं' यथा देवगुर््रव्यं हितार्थिभिः । ब्रह्मस्वं च तथाभूतं न दण्डाहुस्ततो द्विजः ॥।* (४०-२० १) अर्थात्‌ जेसे हिताथियोंको देवगुरुद्रव्य ग्रहण नहीं करना चाहिये उसी तरह ब्राह्मणका धन भी । ग्रतः द्विजका दंड-जुमनिा नहीं होना चाहिये । इन विशेषाधिकारोपर स्पष्टतया ब्राह्मणयुगीन स्मृतियोंकी छाप हं । शासनव्यवस्थामे श्रमुक वणेके श्रमुक श्रधिकार या किसी वर्णविशेषके विशेषाधिकारोंकी बात मनुस्मृति श्रादिमे पद पदपर मिलती हं । मन्‌ स्मृतिमे लिखा हं कि-- “न जातु ब्राह्मणं हन्यात्‌ सवंपापेष्वपि स्थितम्‌ । राष्टादेनं बहिः कूर्यात्‌ समग्रधनमक्षतम्‌ ।“ (८।३८०-८१) ^“न ब्राह्मणवधाद्‌ मूयानधमा विद्यते भुवि । अहायं ' ब्राह्मणद्रव्यं राज्ञा नित्यमिति स्थितिः ॥।' (६।१८६) भर्थात्‌ समस्त पाप करनेपर भी ब्राह्मण श्रवध्य हं । उसका द्रव्य राजाको ग्रहृण नहीं करना चाहिये । श श्रादि पुराणमें विवाहकी व्यवस्था बताते हुए लिखा हे कि- | “शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्यातां स्वांच नेगमः। वहेत्स्वां ते च राजन्यः स्वां द्विजन्मा क्वचिच्च ताः ॥' (१६।२४५७) भर्थात्‌ शद्रको श्र कन्या हौ विवाह करना चाहिये ক্সল্য ब्राह्मण श्रादिकी कन्याप्रोंसे नहों। वेश्य वैयक्रन्या श्रौर शूद्रकन्यासे, क्षत्रिय লঙ্গিঘ হয श्रौर शूद्रकन्यासे तथा ब्राह्मण ब्राह्मणकन्यासे रौर कहीं क्षत्रिय वेश्य भ्रौर शद्रकन्यासे विवाह कर सकता है । इसकी तुलना मनुस्मृतिके निम्नलिखित इलोकते कीजिय- ““शुदरैव भार्या शूद्रस्य साच स्वा च विशः स्मृते । तेच स्वा चैव राज्ञश्च ताद स्वा चाग्रजन्मनः ।।' (३।१३) याज्ञवल्कय स्मृति (३।५७) में भो यही क्रम बताया गया हूँ । महाभारत श्रनुशासनपर्व में निम्नलिखित इलोक श्राता हँ- “तप: श्रुतं च योनिश्चाप्येतद्‌ ब्राह्मण्यकारणम्‌ । त्रिभिगुणैः समुदितः ततो भवति वं द्विजः“ (१२१।७)




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