भगत सुमेरचंद जी वर्गी | bhagat Sumerchandra Jee Varni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है हैं उन्हें व्यापार में लगा कर आत्महित कामागे अंगीकृत करना चाहिये। यह জন बिचार कर आपने अपने बड़े भाई ज्योतिप्रसाद जी से कहा कि भाई साहब ! दुकान का काम तो आप सम्हालते ही हैं और दोनों लड़के आपकी आज्ञा में हैं। अब आप मुझे अवकाश दे दें तो मैं निराकुल होकर धर्मसाधन करूँ । ज्योतिप्रसाद जी ने तीसरे विवाह का प्रस्ताव रक्खा परन्तु भगत जी को वहं रुचिकर नहीं हुआ । दोनों हाथों से अपने कान पकड़ कर बोले अब तीसरी बार गलती नहीं करूंगा । भगत जी का समय जिनेन्द्रपूजन, स्वाध्याय तथा धर्म को प्रभावना में विशेष रूप से बीतने लगा। शक्ति के अनुसार अनेक नियमों का पालन करने लगे । वे सदा सत्सग की खोज में रहते थे कि कोई ऐसे महानुभाव का समागम प्राप्त हो जिससे मेरी विरक्ति का परिणाम वुद्धिङ्धत होता रहे । देनंदिनी कै पृष्ठो पर उभरी हुई भगत जी को भव्य भावना : भगत जी जब कभी अपने मनोभाव दैनंदिनी मे अदधत किया करते थे! निम्नाद्धति पंक्तियों मे उनका विरक्तभाव उभरकर सामने आ जाता है--ऊँ नमः सिद्धेभ्य:। अब मैं अपनी नियमावली लिखता हूं। मैं जो हूं एक चेतन्‍्य आत्मा। इस पर्याय में सुप्रेरचन्द्र कहलाता हूं। अपने चित्त में लघुता को प्राप्त होता हुआ इस पुस्तक में याद रखने वाले अपने नियमो का तथा श्राइन्दा के प्रोग्राम को लिखता हूं। मेरी क्रिया कोई श्रेणीबद्ध नहीं है। कोई नियम कहीं का कोई नियम कहीं का । यथावत प्रतिभा के भाव से मेरे नियम नहीं हैं। मेरी शक्ति अल्प है मौर द्रव्य-क्षेव-काल-भाव बदला हुआ है। श्री गुरु के साक्षात्‌ मुखारविन्द के उपदेश के विना पञ्चमकाल मे सार्थक व्रत नहीं सध सकता ओर श्री गुरु महाराज इस पञ्चमकाल में इस क्षेत्र में दोखते नहीं । इस वास्ते मँ पाक्षिक अवस्था को ही धारण करता हूं । प्रथम अवस्था मे जो मेरी भूल তই ই उससे निन्दता हूं । जो हे सूमेर- चन्द्र वाले आत्मा ¦ तूने इस संसार में मनुष्य जन्म पाया है । सेतीस वषं तक कुछ आत्मानुभव नहीं किया । विषय कषाय मे ही सब उश्न गमाई । अब भी कया भूल में रहना चाहिये? अन्त दिन की खबर नहीं किस दिन परलोक हो जावे 1




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