स्वामी विवेकानंद | Swami Vivekanand

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Swami Vivekanand by आशा प्रसाद - Aasha Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दक्षिणेदवर का पुजारी € शीघ्र नहीं छोड़ सके. रामकृष्ण के साथ बात ही बात में उनके ग्यारह माह वीत्त गये, रामकृष्ण के साकार देव की उपासना का माध्यम था प्रेम, और तोतापुरी के निराकार ब्रह्म की साधना का मार्ग था योग. नितान्त विपरीत पथ पर दो श्रलौकिक ज्योति पुंज. किन्तु दोनों के एक लक्ष्य, शर्न: दाने: दोनों पथ संकुचित होते गये. साधना के क्षेत्र में प्रतिकूल विचार वाले दोनों संत पास श्रा गये, दोनों ने श्रपने-अपने ज्ञान से एक दूसरे को प्रभावित किया. निराकार ब्रह्म के चमत्कार से झ्रनभिज्ञ 'रामकृष्ण ऐसी कल्पना नहीं कर पा रहे थे कि बिना सगुण का सहारा लिए भगवान से तादात्म्य स्थापित हो सकता है. तोतापुरी ने कहा--'मेरे पुत्र, सत्य का बहुत लम्बा रास्ता तुमने पार कर लिया है. यदि तुम्हारी इच्छा हो तो इसके बाद का मार्ग मैं वेद'न्त के द्वारा बताऊँ.” रामकृष्ण ने कोई उत्तर नहीं दिया. वे मां काली के सामने एक भोले बालक के समान खड़े होकर इस प्रकार की श्राराघना के लिए श्राज्ञा मांगने लगे. श्राज्ञा मिलने पर उन्होंने तोतापुरी से श्रत्यंत विदवास श्रौर विनख्रता- पुर्वक वेदान्त की दीक्षा ली. दीक्षा संस्कार के प्रथम चरण में इन्हें श्रपनी 'इन्द्रियों को वश में करना, किसी भी देवी-देवता की पुजा-श्रचेना के बाह्याउम्बर से मुक्ति पाना तथा श्रपने अहं को भी भूल जाना था. इन सब पर तो इन्होंने तुरंत ही विजय प्राप्त कर ली, किन्तु जब थे तोतापुरी की निर्देशित्त मुद्रा में प्रासन लगा कर ध्यानमग्न होते तो बरावर उनकी बन्द श्रांखों के सामने मां काली का रूप उभर श्राता, हतोत्साह होकर उन्होंने तोतापुरी से कहा कि यह सब व्यर्थ है. वे अपनी आत्मा को प्रतिवन्धरहित स्थिति से ऊपर उठा ब्रह्म में श्रात्मसात नहीं कर सकते, ऐसा सुनते ही तोतापुरी ने रामकृष्ण की श्रोर श्राग्नेय दृष्टि से देखते हुए तीक्ष्ण वाणी में कहा--'क्या ? यह तुमने कहा ? तुम ऐसा नहीं कह सकते ? तुम्हें करना है.' ऐसा कह कर उन्होंने शीक्षे का एक टुकड़ा रामकृष्णा की के सामने रखा श्रीर उसके एक विन्दु पर ध्यान केन्द्रित करने को कहा. रामछृष्ण के छाब्दों में -- तब मैं श्रपनी सम्पुरणं शक्ति से ध्यान लगाने लगा. जैसे ही देवी मां की भव्य श्राकृति प्रस्तुत हुई, मैंने श्रपनी तलवार के समान श्रपने विवेक का प्रयोग किया. मैंने उसे दो टुकड़ों में खंडित कर दिया, श्रंतिम व्यवघान टूट गया 'सैं समाधि में खो गया .' समाधि सीमा पर पहुंच गयी. आत्मा परम ब्रह्म में श्रात्ससात हो गयी. चारों कुन्य ही चुन्य --न देव न पुजारी, न उपास्य न उपासक, इस निरधिकल्प समाधि की ऐसी स्थिति है जिसकी भ्रभिव्यक्ति के न भाव है न भाषा, इस स्थिति तक पहुंचने में तोतापुरी ने श्रपने जीवन के चालीस कठिन वर्ष व्यतीत किये, किन्तु रामकृष्ण ने एक ही दिन में इस समाधि की कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर परनब्रह्म में श्रपने को ग्रात्ससात कर लिया. इसके बाद से रामकृषप्ण श्रतुभव करने लगे कि देवी कालो ही परम सत्य, परब्रह्म है. वे व्यष्टि भी हैं, समष्टि भी हैं. वे एक श्रौर नेक से परे शून्य हैं. एक दिन देवी मां को उन्होंने कहते हुए सुना--'में जगत-




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