स्वाध्याय - शिक्षा | Sawadhyaya Shiksha
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
125
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(विनाशी) ह । अत इनका आश्रय पराश्रप्र है। जहाँ पराश्रय है, वहाँ स्व
में स्थित (स्थिर) होना नही है, अर्थात् ध्यान सही है। फिर भी स्वचर्चा
बोर स्व-चिन्तन रूप स्वाध्याय का महत्व कम हो, सो बात नही है, इसे
एक उदाहरण से समझे---
जैसे किसी व्यक्ति को धूम्रपान या मदिरा सेवत से शारीरिक रोग
(विकार) उत्पन्न हुआ, वह अस्वस्थ हो गया । उस व्यक्ति के लिए वह रोग
(विकार) बुरा है, हेय है, त्याज्य है। उस विकार को दूर करदे के लिए
औषधि सेवन आवश्यक है । इस दृष्टि से औषधि उपादेय है, औषधि का
महत्व है , परन्तु जब वह् विकार मिट जाता है, अर्थात् व्यक्ति स्वस्थ हो
जाता है तो उसे औषधि लेते की आवश्यकता नही रहती, फिर औषध न
लेने में ही उसका हित है। इसी प्रकार व्यक्ति विषय-विकार में भप्रस्त हे,
उसमे चर्चा और चिन्तन का राग है, तब तक उसके लिए पर-चर्चा और
पर-चिन्तन रूप राय की मदिरा से हटकर परहेज कर स्व-चर्चा और स्व-
चिन्तन हप स्वाध्याय औषधि का सेवन आवश्यक है, यह साधनावस्था
है। जब स्वाध्याय औषधि के फलस्व॒रूप स्व-स्थ (ध्यान) अवस्था को प्राप्त
कर लेता है, तब स्व-चिन्तन स्व-चर्चा रूप औपधि सेवन करने की आब-
श्यकता नही रहती । इस प्रकार स्वाध्याय से ध्यान की उपलब्धि होती
উই | स्वाध्याय कारण है, और ध्यान कायं ।
ध्यान का अथं है चित्त को सं ओर से हृदाकर स्व मे स्थित करना ।
स्व का दर्शन करना । स्व का दर्णन करता ही सत्य का दर्शन करता है।
सत्य अर्थात् जो जैसा है, उसके वास्तविक स्वरूप ही का अनुभव करना ।
जौर उस अनुभव के प्रभाव से राग-द्वेषबादि दोषो से दूर होवा, सत्य का
दर्शन ही सम्यग्दर्शन है। ध्याव मे चित्त शान्त और समत्व भाव को
प्राप्त होता है जिससे शरीर के उपरी एव भीतरी भाग गौर उन प्र
होने वाली सवेदनाओ का अनुभव होता है। तो वहाँ पर सततु उत्पाद-
व्यय स्पष्ट अनुभव होता है, चित्त को देखने पर यह् उत्पाद-व्यय ओर घी
अधिक द्रतगामी से होता हुआ अनुभव होता है 1 यान मे जितना-जितनां
समता ब सुक्ष्मता के छेत्र की गहराई मे प्रवेश होता जाता है, यह उत्पाद-
व्यय उतनी ही अधिक शीघ्रता से होता हुआ अनुभव होता जाता है ।
यहाँ तक कि एक पल में लाखो करोडो वार से भी अधिक उत्पाद-व्यय
होता दिखाई देता है । जौ इतना परिवर्तनणील नरवर है, जिसका अस्तित्व
क्षण भर के लिए भी नही है। ऐसे क्षणभगुर शरीर व ससार के प्रत्ति
१० ] [ स्वाध्याय-शिक्ष्य
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