सूर - सागर खंड 2 | Soor Sagar Khand - 2

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Soor Sagar Khand - 2  by श्री जगन्नाथदास - shree Jagannathdas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श२ राग कान्दरों | जैसे तुम गज को पाएँ छुड़ायो । श्रपने जन कं दखित जानि के पाउँ पियादे धायी । जहूँ जहेँ गाढ़ परी भक्तनि को तहूँ तहूँ आपु जनायौ । भक्ति-देत प्रहलाद उबार्‌यो द्रौपदि-चीर बढ़ायो । प्रीति जानि हरि गए बिदुर के नामदेव-घर छायो । सूरदास ढ्विज दीन सुदामा तिंहिं दारिद्र नसायी ॥२०॥। 1 ताथ श्नाधनि ही के संगी । % राग रामकर्ी दीनदयाल परम करुनामय जन-हित हरि घहुनरंगी । पारथ-तिय कुरुराज सभा में बोलि करन चहें नंगी । ख्रवन सुमनत क्रुना-सरिता भण बढ़यो बसन उमंगी । कहा बिदुर की जाति बरन है श्राइ साग लियो मंगी । कह्टा कूबरी सील ? बस भए स्याम त्रिभंगी । राह गद्यों गज बल बिनु ब्याकुल घिकल गात गति लंगी |। धाइ चक्र ले ताहि उबार्‌यो मसारयो था बिहंगी । यह पद केवल ना के में है। छ परत- ४ १९ जतायो---१६ | के को । हू यह पद स क कीं पू से है एर इसका पाठ किसी प्रति से शुद्ध नहीं है। - हु कत--8 । दुखित--१४ १६ १७३ 5 ये दोने चरण से में नहीं है और क ए. से इनका पाठ अ्ट है। का की सहायता से शुद्ध करके ग्रह पा रखा गया है । थी यह चरण क पूछे में नहीं । हि रूप-रासि-कर--हे । | इस पंक्ति के परचात के में यह एक चरण श्रतिरिक्ता है-- भक्तन बछल छृपानिधि केसव प्रसिन के प्रभु संगी |




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