रविन्द्र-साहित्य भाग - 8 | Ravindra - Sahitya Bhag - 8

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Ravindra - Sahitya Bhag - 8 by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अभिसार : कविता क्या हानि, यही होने दो अब, होओ न विसुख, हे देवि सदयः. सम उर-नभमें हो जागरूक तव देह-हीन नव-ज्योति-निर्चय-। छाया कल्ङ्कुकी डारेगे उसपर न नयन वासना-मलिन, तमसावृत उरको नीखोत्र होगा उपरू्ध सदा सब दिन । तुमसे निज देव निहारूँगा, तुममे हेरिको पचानूगाः आलोक तुम्दीसे पाञगा, अपटक अनन्त निशि जागूँगा। आखिसार (बोधिसत्वावदान-कल्पलता) संन्‍्यासी उपगुप्त एक बार सथुरा नगरीके ভন पग्राचीर - तले थे सुप्त , बुके दीप, खा व्यजन पवनके, रुद्ध हार थे पोर - भवनके, सघन गगन-पटमे सावनके नेश तारकाएँ थीं छुप्त। किसके नूपुर-शिक्षित पदयुग सदसा बजे वक्ष॒मे आज चौंक चकित संन्यासी जगे, स्वप्र - जार पलकोंसे भागे, क्षमा ~ मञ्जु नयमोके अगे रूढ़ दीप था रहा विराज)




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