द्रव्य संग्रह दीपिका | Dravya Sangrah Deepika

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Dravya Sangrah Deepika by नाथूराम डोंगरीय जैन - Nathooram Dongariy Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रहितकारी मान उसे अभूतापं च मर्वथा ट्रेस प्रतिप्रायत करते ই जाते हैं। कियु भग्नानियों को परारंभिड दशा मै न्वयो करने में स्वदार नय ष्टी प्रयोगनवान्‌ দীন ने फेयचिन्‌ निगार শী सिद्ध होता है। यहाँ तक फि सभो णोवों को प्रारंभिक ससान षणा में व्यवहार नय ही मत्व योध फरने मै अनिवायं साधन ह अतः एम रथं में मी व्यवहारं नय भूनार्थं निद होता इस प्रहार संग्रयसार में ध्रीमदमतवा्य से तथा শীমঙজ্তযদনানা ने घो मेश्यय और व्यवहार दोनों तयों छा भूताय थे अभूतायें रूप में प्रतिपादन किया है पहू उल्लिशित विधरण से ग्ंभोरताएवंपः भली-भाँति घियारने पर सधाथ॑ ये स्यायोचित्‌ सैड हों जाता है। इसके सिवाय श्रीमश्मयसेमाचार्य मे समयसार को ही 2१५वाँ गाथा की टोफा सन्ते ष्र्‌ निश्चय ओर व्यवहार नयो कोौदो नेधों फो स॑नादी द जौर्‌ उनके করেছ सापेक्ष होने पर ही दोनों को सत्य सिद्ध किया है । उनेकै शब्द निम्न प्रकार ई-- “দি; य, युद्धं निर्यमेन जौवन्याकर्न,व्वमभोप्तृत्वं न प्रोधादिन्यण्च भिन्नत्वं भवतीति व्याद्याने दतै गति द्वितीय परते व्यवहारेण कत्वं भोगतृत्वं च प्रोधादिमारचाशिनत्य च सभ्यते एवः १ करमान्‌ 7 निषचयच्यव्हारयोः परेरपर सापेक्ष- त्वात्‌ । कथसिति चैत्‌ ? यथा दक्षिणेन चक्षुपा पण्यत्ययं देवदत: इत्युस्से वामेन ने पश्यतीत्यनुइवसिदमिति | ये पुनरेव परस्परसापेक्ष नय विभागं न मन्यन्ते साप्य सदाशिवमतानुसारिणस्तेपां मते यवाशुद्ध निष्ययनयेन कर्ता ने भवति, क्रोधादिभ्यए्च भिन्नों भवति तथा व्यवहारेणापि, ततर्च क्रोधादिपरिणमनाभाव सत्ति सिद्धानामिव कर्मंबंधाभाव:। ফল নামান संसाइाभाव:। संसाराभाव॑ स्वदा मुक्तं प्राप्नोति । सचप्रत्यक्च विरोधः-संमारम्य प्रत्यक्षेण दृण्यमानःवात्‌ 1 अथत््‌-- दूसरी वाते गह्‌ दै किः शुद्धे नय मे जीव वेः अकरत्तपिना, अभोक्ता पना ओर कछरोधादिक से मिद्नपना ह--एन प्रकार व्याययात करने पर दुसरे पक्ष सें व्यवहार से कत्तप्रना, भोक्तापना और क्रोधादिक से अभिन्नपना भी जीव में पाया ही जाता हैं। किस कारण से ? यदि एया पृषो, तो उत्तर यहे है कि जने देवदत्त दक्षिण नेय (दाहिनी आय) से देखता है, ऐसा कथन करने पर वाम नेम (वायीं भांख) से नहीं देखता--यह वाव बिना कहें स्रिद्ध हो जाती है।” अर्थात्‌ निश्चय व्यवहार दोनों नय दायें चार्ये--नेत्र के समान हूँ। आगे चल कर वे कहते हैं--जों इस प्रकार परस्पर सापेक्ष नय विभाग छौ नही मानते एय जो सख्य गौर सदाशिव मतानुयायी हैं उनके गत में जैसे णद्ध निज्यय नय से. जीव - कर्ता नहीं है और क्रोधादिक से. भिन्न है उसी प्रकार व्यवहार नय से भी मनना-परेया। इससे संसारी. जीक- कै. कोधादि स्प परिणमत




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