दिवाकर दिव्य ज्योति १२ | Diwakar Divya Jyoti [ Vol. - 12 ]

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Diwakar Divya Jyoti [ Vol. - 12 ] by पन्नालाल जी महाराज - Pannalal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्राग की उपगान्ति | [११ हि ५ 162५ নানি 1... ৯৯০৭৪ ৬৯৯৬০৯০১১৮৪ को जोत लिया है और फिर इसी कारण वे वस्तुओ के सग्रह से विमुख हो गये है । ऐसे पूरे त्यागी श्रनगार है । प्रनगार यो तो समस्त पदार्थों के त्यागी हैं, किन्तु धर्म स्थानक में भी ममत्व कर लेता है तो वह भी एक प्रकार का घर टी है। घर हो जाने पर उसमे शाख्रो, पात्रो आदि का संग्रह शुरु हो जाता है । कहा है -- श्राद्धा पातरा बाघ धरे, वलौ ट्टा पृटा मे गोचरी करे । वाध द्रुघ कर जावे बिहारो, यो साधतणो नही भ्राचारो ! जो साधु अच्छे-भ्रच्छे और नये-नये पात्रतो संभाल कररख লা ই সী द्टे-पूटे पात्रो मे गोचरी करतारहै समभ लीजिए । कि उसकी ममता नष्ट नही हुई है--3प्तमे सम्रहवुद्धि बनी हुई है । वह अपने स्थानक मे पाने, पोथी, शाक् ग्रौर पात्र एव वल्ल इष्टं करता है। मरने के वाद कपडो के थान और वहढिया रगे हुए पात्र निकलते है । यह साधुता की मर्यादा के विरुद्ध है। मगर नचहाँ मकान खडा हो जाता है, वहाँ अनेक बखेडे खड़े हो जाते है ! एक ग्रार्याजी ने हमे सुयगडाग का बढिया लिखा हुश्ना पुदरा दिया । कहा--इसे प्राप रखिए। लेकिन मैंने सोचा--यह मेरे बया फाम श्राएगा ? उलटा बोक उठाना पड़ेगा। तात्पय यह है कि जहाँ घर है-फिर चाहे वह किसी भी नाम से क्यो न हो वहाँ ग्रढ गे खड़े हो ही जाते है । मगर मुनिराजो को इन सब बातो से बचना चाहिए । जब मौजूदा घर को स्वेछापूरवंक त्याग दिया, सम्पत्ति को ठुकरा कर साघुता स्वीकार कर ली और सिर मुडा लिया तो फिर वक्लो और पात्रों पर ममता कैसी ? श्रगर ममता सनी है, लालसा नही मिटी है, अन्त करण में आसक्ति जैसी की तनी है, तो फिर वेषपरिदर्त्तन मात्र से क्या लाभ होगा ?




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