काव्यशास्त्रीय निबन्ध | Kavyashastriya Nibandh

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Kavyashastriya Nibandh by डॉ. वेंकट शर्मा - Dr. Venkat Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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17 शब्द को हटाकर उसके स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग करते हुए एबेः अर्थ के स्थान पर दुसरे अर का अभिनिवेश करना ।' उदाहरणार मदि कोई उत्तम बुद्ध किसी मध्यम वृद्ध को पुस्तक साने मी आज्ञा दे और तदुपरांत पुस्तक रघकर लेघनी लाने का आदेश दे और मध्यम बृद्ध उठी के अनुसार क्रिया करे तो उत दोनो प्रकार की क्रियाओं को देखने बाला बातक स्यवहार द्वारा सनेतग्रह करेगा और वह ग्रहण 'आवापोद्ाप' को प्रत्रिया से सम्पल होगा। वस्तुत' यह मोक. स्यवहार सयेतग्रह का प्रधान साधन है । लोकव्यवहार के अतिरिकत सवेत-स्यवहार के और भो अनेरः साधन हैं जो व्यावरण, उपमान, कोश, आप्तवास्य, स्थवह्र, वावय-शेप, विवृति तथा सिद्ध पद के सालििध्य द्वारा अर्धन्योध या सबेतपग्रह कराते हैं।' नागशभट्ट ने अपने प्रमिद्ध ग्रथ 'परमलपुमंजूपा' में व्याकरण आदि उपर्युक्त आदो (साधनों) का दिवेदन किया है जिससे इस बात का पता चलता है कि सयेत भा ज्ञानं किन. किन उपायो अथवा साधनों से होता है ? 'स्थाकरण द्वारा होने वाले सबेत-शान के उदाहरण मे मू सायाम्‌! आदि धातुपाठ तया 'साधदतम करणम्‌ आदि सूत्र रखे जा सकते हैँ जिनसे भू-घातु तथा करण कारक आदि पदों का ময় व्याकरण द्वारा होता है। 'उपमान' द्वारा होने वाले अध॑दोध का उदाहरण 'यया भौस्तया गवयः है ॥ इसरा यह अभिप्राय है कि जो व्यक्षित गाय को तो जानता है किस्तु गवय (नीलगाय) को नही जानता, उसके राम्मुख यदि उपयुक्त बाजय कहा जाए तो वह उपमान-प्रमाण की सहायता से “गवय' पद का भी 3 (अबोध) कर लगा । 'कोए द्वारा किय्े जाने वाले सक्केतग्रह के निरूपण की कोई आवश्यकता हो नही है क्योकि कोषकृत अर्थवोध से तो सभी परिचित हैं। 'आप्तवाबय' द्वारा होते वाले सकेतग्रह के उदाहरण माता-पिता और যুহসলা के वावय हैं जिनके अनुमार बालक सकेतवोध करता है। “व्यवहार' से होने वाले संकेत-ग्रह का विवेचन हम अन्विताभिधानवादियों की मान्यता के स्पप्टोकरण के সময ঈ ক ही चुके ह । “ावयशेष' से अर्थ-दोध होने का अर्थ है किसी शब्द के अर्थ के विषय में सदेह होते पर आये आने वाले सदर्भ से अर्थ का निश्चय किया जाना । उदहेरणार्य यदि कोई यह कहे कि 'यव का चरू बनाओ तो श्रोता को “यव' पद का अये जानने में कठिनाई होती दै, किन्तु जवे इसी वाक्य के पश्चात्‌ आने वाले इस वाक्य से कि “जद अन्य वनस्पतियाँ सूख जाती हैं तो भी यव हरे-भरे होते हैं, श्रोता को “यव' शब्द का अर्थे अविलम्ब रुप से ज्ञात हो जाता है । विवृत का अथं है दिवरण या व्याव्या । यट भौ सर्थंवोघ मरा एक साघन ह । उदाहस्णाथं कालिदास कौ “भय नयनमुत्यं ज्योतिरभर रिव दयौ.“ नामक 1. शक्तिग्रहं व्याकरमोपमानकोपाप्ठवाक्यादव्यवह्ारतश्य 1 वाग्यस्य शेपादिविवृतेवेदन्ति सानितष्यत., सिदपदस्य । (पाव्यकाप 218}




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