भगवती आराधना भाग - 1 | Bhagavati Aaradhana Bhag - 1

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Bhagavati Aaradhana Bhag - 1 by कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री - Kailashchandra Siddhantshastri

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री - Kailashchandra Siddhantshastri

Add Infomation AboutKailashchandra Siddhantshastri

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
१४ , भगवती भाराधनां टौकाकार भपराजितसूरिने अपनी टीकामें अतिचारोको स्पष्ट करते हुए शंका अतिचार ओर संशयमिथ्यात्वके भेदको स्पष्ट करते हुए कहाहै कि शका तो भज्ञानके कारण होती है उसके मूलमे अश्नद्धान नही है } किन्तु सशयमिथ्यात्वके मूलमे ततो भश्रद्धानदहै। इसी प्रकार भिथ्यात्वका सेवन अतिचार नही है, अनाचार है, मिथ्यारृष्टियोकी सेवा अतिचार है । द्रग्य- लोभादिकी अपेक्षा करके मिथ्याचारित्रवालोकी सेवा भी अतिचार है ] गाथा ४४ में उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावनाको सम्यग्दर्शनका गुण कहा है। शाथा ४५-४६ मे दर्शंनविनयका वर्णन करते हुए अरहन्त, सिद्ध, जिनबिम्ब, श्रुत, घमं, साधृवगं, आचायं, उपाध्याय, प्रवचन ओग दशंनमे भक्ति, पूजा, व्णंजनन, तथा मवणंवादका विनाश भौर आसादनाको दूर करना, इन्हे दशंन विनय कटा है । टीकाकारने इन सबको स्पष्ट किया है | इनमे 'वणंजनन' शब्दका प्रयोग दिगम्बर साहित्यमे नही पाया जाता । वणंजननका अथं है महत्ता प्रदशित करना । टोकाकारने इसका कथन विस्तारसे किया है | गाथा ५५ मे मिथ्यात्वके तीन मेद कहे है संशय, जभिगृहौत, मनभिगृहीतत । इस प्रकार सम्यग्दर्शन नाराघनाका कथन करनेके पहइचात्‌ गाथा ६४३ मे कहा है कि प्रशस्तम रणके तीन भेदोमेसे प्रथम भक्तप्रतिज्ञाका कथन करेगे क्योकि इसकालमे उसीका प्रचलन है। इसीका कथन इस ग्रन्थमे मुख्यरूपसे है, शेष दोका कथन तो ग्रन्थके अन्तमे सक्षेपसे किया है। भक्तप्रत्याख्यान--गाथा ६४ मे भक्तप्रत्याख्यानके दो भेद किये है--सविचार और अविचार । यदि मरण सहसा उपस्थित हो तो अविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है अन्यथा सविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है । सविचार भक्तप्रत्यास्यानके कथनके लिये चार गाथासोसे चवालोस पद कंहे हँ । ओर उनका क्रमसे कथन क्या है | उन चवालीस पदोमेसे सबसे प्रथम पद सहं का कथन करते हुए कहा है-- जिसको कोई असाध्य रोग हो, मुनिधमंको हानि पहुँचानेवाली वृद्धावस्था हो, या देंवकृत, मनुष्यक्ृत, तियंञज्चकृत उपसर्ग हो, अथवा चारित्रका विनाश करनेवाले शत्रु या मित्र हो, दुर्भिक्ष हो, यथा भयानक वनमे भटक गया हो, या आँखसे कम दिखाई देता हो, कानसे कम सुनाई देता हो, पेरोमे चलने-फिरनेको शक्ति न रही हो, इस प्रकारके अपरिहाय॑ कारण उपस्थित होने पर विरत अथवा अविरत भक्त प्रत्याख्यानके योग्य होता है ।॥७०-७३॥ जिसका मुनिधमं चिरकार तक निर्दोष रूपसे पाछित हो सकता है, अथवा समाधिमरण करानेवाले निर्यापक सुलभ है या दुर्भिक्षका भय नहीं है, वह सामने भयके न रहने पर भक्त परत्याख्यानके योग्य नही है । यदि ऐसी अवस्थामें भी कोई मरना चाहता है तो वह॒मुनिधर्मंसे विरक्त हो गया है ऐसा मानना चाहिये ॥|७४-७५॥ इससे भागे गरन्थकारने भक्त प्रत्याख्यानके योग्य व्यक्तिके लिंगका कथन करते हुए कहा है- जो औत्सगिक लिगके धारी हैं अर्थात्‌ समस्त परियग्रहके त्यागी है उनका लिग तो वही




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now