जैन धर्म प्रवेशिका प्रथम भाग | Jain Dharma Priveshika Pratham Bhag

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Jain Dharma Priveshika Pratham Bhag  by बाबू सूरजभानुजी वकील - Babu Surajbhanu jee Vakil

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about बाबू सूरजभानुजी वकील - Babu Surajbhanu jee Vakil

Add Infomation AboutBabu Surajbhanu jee Vakil

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
| ७ | हो जाता है, कुछ हवा हो कर हवा में मिल जाता है ओर कुछ भाप वन कर फिर पानी वन जाता है, इस ही प्रकार का चक्र सव ही प्रकार की बस्तुवों में लगा हुवा है. कोई पर्याय जल्द बदलती है ओर कोई देर में परन्तु प्रत्येक वस्तु - अपनी पर्याय बदलती जरूर है, इस ही प्रकार जीव भी कभी मनुष्य बनता है, कभी घोड़ा बेल आदि पशु होता ह कमी चील कबूतर तोता भेना आदि पत्ती बनता है, कभी मच्छर खटमल आदि कीड़ा मकोंडा बन जाता है कभी नरक में जाता है ओर कभी स्वग में, इस हीं प्रकार अनादिकाल से तरह २ की पर्याय बदलता चला आरहा है, इस प्रकार जीव ओर अजीब লালা हीं प्रकार के पदार्थ अनादि काल से तरह २ का पर्याय बदलते चले आरहे हैं, इस ही को संसार कहते हैं, इस संसार को न किसी ने बनाया है ओर न कोई नाश कर सक्ता हैं यह ता वस्तुओं के स्वभाव के अनुसार तरह २ की पर्याय बदलता हवा अनादिकाल से यही चला आरा हे। सेसार की सब वस्तु अपना अलग २ स्वभाव रखती हैं परन्तु देसरी वस्तुओं के मिलने से उनके स्वभाव थे फ्रक आजाता है इस ही को विभाव कहते हैं, पानी का स्वभाव शीतल ६ परन्तु उस पर सूरज की धूष के पढ़ने से वा आग की गर्मी के पहुंचने से वह पानी ऐसा गये हो जाता है कि छुआ भी नहीं जा सक्ता दे, शरीर पर पड़जाय तो फफोले




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now