ज़िच | Jich

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Jich by मन्मथनाथ गुप्त - Manmathnath Gupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जिच ६ थो। मैंने आज पहली बार ध्यान से उसकी चचार देखा । सुन्दरः, भरा हुआ चेहरा, बाल इस समय वेधे हुए नही, देखने मे अच्छी केन्तु मैंने तो उसे बहिन के अलावा किसी और दृष्टि से कभी देखा नहीं था । आज भी मैंने जब उसे फिर से देखा तो मैंने अपने को उसके प्रेमपान्र के रूप में देखने स असमर्थ पाया। थोड़ी देर में बह सम्हत्ती और चुपचाप मुँह से आऑँस पोंछ- कर चल्ली गई। मुमे फिर भी कुछ न सूका और में जड़बत्‌ खाट पर बेठा रह गया । बुखार बिलकुल अच्छा हो गया । अब में बाहर आगे-जाने लगा । वही पुराना ढर्ण जारी हो गया | तारा आती थी, किन्तु कुछ अधिक बोलती नहीं थी। काम की बात करके चल दती थी, किन्तु जब भी बहे आती यमे बडे ध्यान से देखी, मानो मेरे हृदय को पढ़ डालना चाहती हो । में आँखें नीची कर लेता । एक दिन वह सन्ध्या समय आई । ऐसे समय वह बीमारी के युग में तो आती थी, किन्तु तब से नहीं आई । में भेज पर काम कर कहा थां । शाम को आए हुए कुछ जरूरी खतों का जवाब दे रहा था। मैंने सिर उठाकर उसकी तरफ़ देखा, किन्तु उसने मेरी ओर देखा नहीं और लगी भेरी अलमारी की किताबों को सजाने । ऐसा वह कभी-कभी करती थी, किन्तु इस समय कोन जल्दी थी । किताबें ठीक करने के वाद्‌ उसने मेज पर रष्टिः दौड ओर मेरे कास में बिना हस्तक्षेप किये ही मेज की चीज़ों को संभालने लगी । मैंने इस पर भी कुछ न कहा। वह अभी अभी नहाकर आई थी। उसके बदन से किसी भीठे साबुन की লু লাই कमरे में हिलोरें ले रही थीं। मेरी कलम रूक गड! मैंने ऐसा बहाना किया मानो आई हुई चिट्ठी को पढ़ रहा हूँ । यदि म स्वयं आपे में होता तो देखता कि उसके हाथ कुछ कॉप रहे थे | एकाएक उसने भराई हुई आवाज में कहा--कोशिकजी !




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