निशीथ सूत्रम भाग - 3 | Nishith Sutram Part - 3

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Nishith Sutram Part - 3 by अमर मुनि - Amar Muniमुनिश्री कन्हैयालालजी कमल - Munishri Kanhaiyalalji kamal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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{ ११ ) ही चला-जाता है । भ्रपवाद की धारा तलवारकी धारासे भी क हर कोई साधक, भौर वह भी हर किसी समय नहीं चल सकता । जौ ২ आदि आचार संहिता का पूर्ण भ्रध्ययन कर चुका है, निशीय सूत्र प्रार्‌ शर मर्म का भी ज्ञाता है, उत्सगं और भ्रपवाद पदों का अध्ययन ही नहीं, श्रपितु ই উন वही श्रपवाद के स्व्रीकार या परिहार के सम्बन्ध मे ठोक-टीक निर्णय ই सक्ता है । ससन थं है, प्रचार ) र व (नः जिस व्यक्ति को देश का ज्ञान नहीं है कि यह देश कसा है, यहां की क्या दशा है, यहाँ वेया उचित हो सकता है और क्या भ्रनुचित, वह गीताथं नहीं हो सकता । _ ˆ काल काज्ञान भी भ्रावद्यक है । एक काल मेँ एक वात संगत हो सकती हे, तौ दूसरे काल में वही श्रसंगत भी हो सकती है । क्या ओऔष्म और वर्षा काल में पहनने. योग्य हलके-फुलके वस्र शीतकाल में भी पहने जा सकते हैं ? क्या शीतकाल के योग्य मोटे ऊनी कंबल जेठ की तपती दुपहरी में भी परिधान किए जा सकते हैं ? यह एक लौकिक उदाहरण है । साधक के लिए भी अपनी ब्रत-साधना के लिए काल की अनुकुलता तथा प्रतिकुलता का परिज्ञान अत्यावश्यक है । : व्यक्ति की स्थिति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। दुबंल और सबल व्यक्ति की तनुस्थिति और मनः स्थिति में भ्रन्तर होता है । सबल व्यक्ति बहुत श्रधिक समय तक प्रतिकूल परिस्थिति से संघषं कर सकता है, जब कि दुर्बल व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता । वह शीघ्र ही प्रतिकुलता के सम्मुख प्रतिरोध का साहस खो बैठता है। श्रतः साधना के ज्षेत्र में व्यक्ति की स्थिति का ध्यान रखना भी आवश्यक है । देश और काल भ्रादि की एकरूपता होने पर भी, विभिन्न व्यक्तियों के लिए रूरणता या स्वस्थता श्रादि के: कारण स्थिति श्रनुक्रल या प्रतिकुल हो सकती है । यही बात व्यक्ति के लिए उपयुक्त द्रव्य की भी हे। क्या मोटा ऊनी कबल साधारणतया जेष्ठ मास मँ श्रनुपघ्ुक्त होने पर भी, उसी समय मे, ज्वर (पित्ती उछलने पर) की स्थिति में उपयुक्त नहीं हो जाता है ? किवहुना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की श्रनुकुलता तथा प्रतिक्रुलता के कारण विभिन्न स्थितियों मे विभिन्न परिवतंन होते रहते हँ । उन सब स्थितियों का ज्ञान गीतार्थं के लिए भ्रावश्यक है । १जिस प्रकार चतुर व्यापारी श्राय भ्रौर व्यय की भली भाति समीक्षा ` करके व्यापार करता है, और श्रल्प व्यय से श्रधिक लाभ उठता है, उसी प्रकार गीतार्थं भी अल्प दोष-सेवन से यदि ज्ञानादि ग्रुणों का श्रधिक लाभ होता हो, तो वह कार्य कर लेता है, भ्रौर दूसरों को भी इसके लिए देशकालानुसार उचित निर्देशन कर सकता है । টু , 4 , ২ चद १९ - सुंकादी-परिचुदधे, सद लामे कुण वाणिश्रो चिदं । १एमेव यः गीयत्थो, श्रायं दटूदुं समायरइ ।।६५२॥ মে ५ --चूहत्कल्पभाष्य १ एवमेव च गीतार्थो5पि ज्ञानादिक श्रायः ज्लाभं हष्ठा प्रलम्बायकल्प्यपरतिसेव समाचरति, नान्यथा । | --बृहत्कल्प भाष्य वृत्ति, गा ६५२




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