अनुप्रेक्षा प्रवचन भाग - 1, 2, 3 | Anupreksha Pravachan Bhag - 1,2,3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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শাখা ও ११ कहते हैं ना कि घाटी नीचे माटी । जितनी देर मुखमें हे खानेकी चीज) जब तक जीभकी नोक उस चीज ' में लग रही है उतनी देरका स्वाद है । यह सारी जीभ स्वाद नहीं लेती, केबल जीभकी नोकका सम्बन्ध होनेसे स्वाद मालूम होता है । तो बह स्वाद कितनी देरका है. जिसके पीछे लोग बच भी आगे पीछेकी बात नहीं सोचते । खानेके लोभी खाते जाते हैं और बडे प्रमादी चनते हैं, बीमार हो जाते हैं ओर दु'खी होते हैं। रसासक्तिमें बडा दुःख तो यह है कि रसके लोभमे जो उपयोग बना उस उपयोगके कारण अपने स्वरूपकी सुध भी नहीं रही ओर सुध रखनेकी पात्रता भी नही रही। तो रसनेन्द्रियका विपय इन्द्रधनुप की तरह चंचल है । थोड़ी देरमे यह नष्ट हो जाता है । प्राण, चक्षु च फं इन्दरियके विषयको भग्‌ रता--घ्राण इन्द्रियक। विपय है गंध | हवा अनुकूल ই লী गंध भा गई और हवा प्रतिकूल हो गयी तो गध भी हवावे साथ उड गयी । अथवा अपनी इन्द्रिय ही वेकार हो गई तो वह विषय सिट गया । पदार्थ तो मिटने ब्त हे ही, मगर इन्द्रियके द्वारा उन पदार्थोका चपकौण करना यहं क्रिया भी अस्थिर है | चक्षुइन्द्रियका विषय है रुप | लोग इष्टरूपको देखकर उसमे प्रीति करते है, मगर वह रूप चीज है क्या ९ वह्‌ को$ हाथसे उठाकर उपयोगमे लाने वाली चीज हैं कया ? फोई खाने पीने मे आने वाली चीज है क्‍या ? दृर ही इन्द्रिय है, दूर द्वी रूप है, मगर यह व्यामौही जीव दूरसे ही देखता हुआ, जद्ों कि मित्रता भी कुछ नही है। अपने परिणामोफो मलिन बनाता है और पाप बंध करता हैं। तो रूप विषय भी इन्द्रधलुषकी तरह चचल है। रूपका उपभोग चंचल है, रूप भी चंचल है । जैसे कि सन्ततकुमार चक्रवर्ती की कथा बहुत प्रसिद्ध है । अखाडेसे आकर जब नहानेको नडे थ, भूल भरा शरीर था तब तो देवोंने चड़ा आश्चर्य किया उन्तके रूपको देखकर) वे कामदेव थे सनतकुमार चक्रवर्ती और जब किन्हीं ने कहा कि तुम अभी क्या रूप देखते हों। जब दो बजे दिनमे खूब सज घजकर सिंहासन पर राजदरवारमे बैठे हो उस समय इनका रूप देखिये । वे देब उस समय भी गए तो देखकर माथा घुनते हैं और कहते दे ओह ! अब वह रूप नहीं रहा जो प्रात-काल देखा था। तो रूप भी इन्द्रधनुष की तरह चं चल हैं। कर्शइन्द्रियका विपय है शब्द | सुदावने शब्द, राग रागनी भरे शब्द अथवा अपनी इच्छाके अलुकूल शब्द, इच्छ की उत्तेजना करने वाले शब्द, ये शब्द सुद्दाते है मगर वे शब्द भी चंचल हैं, और उत्त शब्दोका उपभोग करना भी चंचल ই। सेवकादि सभी समागमोंकी भगुरता जानकर श्रपश्न वकी उपेक्षा करके निज प्र वतत्वमे उपयक्त होनेका प्रनुसोध--उत्तम सेवक हों) जो स्थामीकी निष्कपट प्रोति भांवसे सेवा करते हों और हितचिन्तक भी हों रेस त्यमू भी नष्ट हो जाने वाले है और जो कुछ ये हाथी घोडे रथ आदिक दिखते है थे सब ভিজ दिखते नष्ट हो जाने वाले है । यह तो वहुत दूरकी सोचनेकी बात है। जीबनमे तो रोज घटनाये होती है, इन्द्रियविषय कितनी बार चाहते है ? कितनी হী লাহ ভল विष्योंका उपभोग करते हैं, वे उपमोग भी अस्थिर रद्द जाते है, विषय भी विगड़ जाते है और आपसभे मेलजोल वाले मिलते हैं, विछुड़ते हैं। तथा यद्द भी देखने मे आता कि आज जो निष्कपट सेबक है बह कहो थोड़ी ही देर वाद्‌ विपरीत वन जाय। तो अपना भृत्य तो नष्ट हो गया ना ? नौकर चाहे वही रहे पर उस मालिक्षके लिए तो वह सेवक नष्ट हो पया | मित्र जो आज अलुकूल दे वे भी प्रतिकूल हो जाते है। तो मित्र तो सष्ट हो गए पुरुष भले ही बढ़ी हैं. लकिन सित्रपन्ता तो न रहा | तो ये सबकी सब बाते इन्द्रधनुषक्री तरह শব ই ইভা লালন र इनमे अलु तग चौर व्यामोह न करं । इनको ही देखे तो इनका जो परमार्थस्वरूप हे, जो शाश्वत ह उस पर दृष्टि दे कि परमार्थ सत्‌ तो वह हैःये सव तो प्य मातर है; आये हैँ मिटेगे। अपने वारेमें भी यही टबिड हैं कि यह उपरक्ता हाचाह व्यवहार यह सब पयोगात्र है। इसमे मे जो एक शुद्ध क्ञान-«भावष रूप तत्त्व हू; जिसका कि यह सब फेलाव बना है वह में ज्ञानतक्त्व हू । पररूर्थ रूच पर इृष्ठि दे, » भू व श




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