डायराक कुछ पत्र | Daayrak Kuchh Patra

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Daayrak Kuchh Patra  by घनश्यामदास बिड़ला - Ghanshyamdas Bidla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थोड़ा आग्रह किया। गांधीजीने पूछा--तुम क्‍यों आग्रह करने लगे ? मेंने कहा--आपने टिकट तो सेकंडका लिया हैं। ছি आपकी प्रतिष्ठाकं कारण फस्टंके तमाम हक आपको स्वत मिल जायंगे । फरस्टकी छतपर कनात लगाकर आपके लिए प्राथेना-चर बनवा दिया हं, क्या यह उचित नहीं कि आप फस्टे- के पसे ही दे दें ?” गांधीजीने कहा--नहीं, इस दलीलसे तो यह सार निकलता हैं कि हम फस्टकं तमाम हकोंको स्वयं त्याग दें। नतीजा यह हुआ किं गांधीजीने फस्टकी छतपर घूमना उसी समय बंद कर दिया। प्राथेनाकी कनात तो एकही दिन काम आई । आज तो उन्होने प्राथना अपने निकम्मे स्थानपर ही की। प्राथना करते समय जहां गांधीजी ध्यान करते थे, वहां में यह सोचता था कि भगवन्‌, प्राथना समाप्त हो तो यहांसे उर्‌ । बठनेवारे दो मिनिटमे ही आधे बीमार हो जाते हें। वमन नहीं हुआ, यह खेरियत हं । कहते हं जहां चांद-सूरजकी गति नहीं हं, वहां भगवान्‌ विराजते हं । हमारे जहाजकं बारेमे यह कु अंशमं कहा जा सकता हे कि जहां भरे आदमियोंकी होश-हवासके साथ गति नहीं ह, वहां गांधीजी विराजते हं । कोई मिलनेवाला जाता ह, तो एक मिनिटसे ज्यादा रुकना भी पसंद नहीं करता । बंबईसे चरते ही समुद्र तफानी हो गया । इसलिए गांधीजीका स्थान एेसा रहता ह, जसे हिदस्तानका डोलर-हिडा । य्‌ ३१ अगस्त, ३१ “राजपूताना” जहाज पंडितजीकी भी बात सनिए। आज तीसरा दिन ह, पर पंडितजीकी प्रायः एकादशी ही चलती हे! बात यह हैं कि पंडितजीका रसोइया बीमार हं ओर आटे-सीधेके बक्सका कहीं पता नहीं । पंडितजीसे लाख प्राथना कौ कि महाराज, बोटका | ५




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