विज्ञान | Vigyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ विज्ञान एाशुज परमांगनेत € 60659851000 0610290- 8०79 (6 ) । इसके चूण वा घोल का व्यवहार कि- या जाता है । इसका ५४% घोल क्षत में प्रत्येक दिन ( दिन में एक बार ) तब तक लगाया ज्ञाता है ज्ञब तक कज्ञत पर एक काली पपड़ी नहीं पड़ ज्ञाती। इस पपड़ी को हटा कर पुनः यही क्रिया कई सप्ताह तक की जाती है । अथवा चूर्ण को হাল-অব্য छिड़क कर, कुछ देरके उपरान्त इसे धो डाला जाता है तथा ज्ञत-स्थानमें कोई शांतिदायक पदाथ लगा दिया जाता है । (४) नवज्ञात नेल ( 1९०६०९०६ 100116 ) यह मुख, नाक इत्यादि की श्लैष्मिक कलाओंकी चिकित्साके लिए बहुत डपयुक्त है | इसके लिए रोगीको सधक नेलिद की बड़ी २ मात्राये' खिलाई जाती ह तथा नासा रन्धोमे ( क्षठ-स्थानमे ) उद्‌- जन परोषिद्‌ ( प्र $0दन0-ल०१८ ) मे सिंगी हुई रूई की बत्तियांको रख दिया ज्ञांता है। नासा रन्धो को श्लेष्मिक कला से निकलता हुआ संधक-नेलिद्‌ उदजन-परौषिदके साथ मिल जाता है जिससे शुद्ध नेलिनकी उत्पत्ति होती है जो यद्तमा्तत पर श्राक्रमण करता है । भाग ३५ उपयुक्त सभी रोतियां किसी पकौ रोगीके लिप उपयुक्त नदीं होतीं । श्रस्तु, जो जिसके कामक हो सके, उसीसे काम क्लेना उचित है । कभी कभी ऐसा होता है कि यदि एक रीति से लाम नहीं हुआ तो दूसरे था तीसरे प्रकार की चिकित्सा की जाती है । १४ चक्ष-यक्ष्मा । इसके रोगी ओर भी कम मिलते हैं। प्रायः १००० चल्लु-रोगियोमे चद्लु-यक्ष्मा-रोगियाँकी सं- झुया की १ से ३ तक हो सकतो हैं अभरन नेत्र- श्लेष्पिका वा कनीनिका पर यक्ष्माकीटाणुओंका कुछ प्रभाव नहीं पड़ता । श्रस्तु, प्राथ।मक चत्त-यक्ष्मा का सम्भावना बहुत कम रहती है | माध्यमिक रूप से यक्ष्मा का आक्रमण सम्भव है । ङिन्तु बहुत से यक्ष्मा-च्तत वास्तव में इनही कीटाणुओं द्वारा आ- क्रान्त रदते हैं या नहीं यह विवाद्‌-प्रस्त है । &डावटर वेचरनाथ भादुढी হুল মী (10019 1९१८०) 7২৪০০107015 1925 ),




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