रत्नपरीक्षादि सप्त ग्रन्थसंग्रह | Ratnaparikshadi-sapta-granth Sangrah

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Ratnaparikshadi-sapta-granth Sangrah by जिन विजय मुनि - Jin Vijay Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ठक्कुर फेरुकृत रलपरीक्षाका परिचय कद ४6875: लेखक -डॉ. मोतीचन्द्र, एम, ए., पीएच. डी, ( क्युरेटर, प्रिस्ल औफ वेटल मुजिअम, बंबई ) | ~ अमरकोरा ( २।१।३-४ ) मेँ पृथ्वी के अइतीस नामो मेँ वहुधा, वसुमती ओर रलगर्भा नाम आए हैं जिनसे इस देश के रक्नों के व्यापार की ओर ध्यान जाता ই। छ्लिनी ने ( नेचुरठ हिस्दी ३७७७६ ) भी भारत के इस व्यापार की ओर इशारा किया है। इसमें जरा भी संदेह नहीं कि १८ वीं सदी पर्यत जब तक कि, ब्राजिल की रत्नों की खानें नहीं खुरी थी, भारत संसार मर के रतो का एक प्रधान बाजार था । रत्नों की खरीद विक्री के बहुत दिनो ঈ अनुभव से मारतीय जौहरियोने रतपरीक्षा হাল का सजन किया । जिसमें रतो के खरीद, बेच, नाम, जाति, आकार, घनत्व, रग, गुण, दोष, कीमत तथा उत्पत्तिस्थानों का सांगोपांग विवेचन किया गया । बाद में जब नकछी रत्न बनने छगे तब उन्हें असली रत्नों से विठग करने के तरीके भी वतछाए गए । अंतमे रत्नौ ओर नक्षत्रों के सम्बन्ध और उनके शुभ और अशुभ प्रभावों की ओर भी पाठकों का ध्यान दिलाया गया। रतपरीक्षा का शायद सबसे पहला उदेख कौटिल्य के अर्थशाख्च ८ २।१०।२६ ) में हुआ है । इस प्रकरणम अनेक तरह के रत्न, उनके प्राप्तिस्थान तथा गुण और दोष की विवेचना है । कामसूत्र की चोंसठ कलछाओं की तालिका में ( कामसूत्र, १।३।१६ ) रूप्य-रल-परीक्षा ओर मणिरागाकर ज्ञान विशेष कडा मानी गई हैं। जयमंगला टीका के अनुसार रूप्य-रत्न-परीक्षा के अन्तगत सिक्कों तथा रत्न, हीरा, मोती इत्यादि के शुण दोषों की पहचान व्यापार के लिए होती थी । मणिरागाकर ज्ञान की कला मे गहनो के जडने के छिए स्फटिक रंगने और रत्नों के आकरों का ज्ञान आ जाता था। दिव्यावदान (प्रु० ३) में मी इस बात का उल्लेख है कि व्यापारी को आठ परीक्षाओं में, जिनमें रत्परीक्षा भी एक है, निंष्णात होना आवश्यक था । पर इस रह्परीक्षा ने किस युग में एक शास्त्र का रूप ग्रहण किया इसका ठीक ठीक पता नहीं चलता । कौठिल्य के कोश-प्रवेश्य रत्नपरीक्षा प्रकरण से तो ऐसा मादूम पड़ता है कि मैये युग में मी किसी न किसी रूप में र्नपरीक्षा शात्र का वैज्ञानिक रूप॑ स्थिर हो चुका था। रोम और भारत के बीच में ईसा की आरंभिक सदियों में जो व्यापार चलता था उसमें रत्नों का भी एक विशेष स्थान था । इसलिए यह अनुमान करना शायद गरूत न होगा कि भारतीय व्यापारियों को, रत्नों का अच्छा ज्ञान रहा होगा




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