जैन जागरण के अग्रदूत | Jain - Jagaran Ke Agradoot

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Jain - Jagaran Ke Agradoot by अयोध्याप्रसाद गोयलीय - Ayodhyaprasad Goyaliya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ये ठेद़ी-मेद़ी लसर ; ठेढ सेट ( रेखाएं हमारे यहाँ तीय॑ड्डारोका प्रामाणिक जीवन-चरित्र नही, आनार्योके कार्य-कलापकी तालिका नहीं, जैन-सघके लोकोपयोगी कार्योकी सूची सही, जैन-सम्राटो, सेनानावकों, मत्रियोंके वल-पराक्रम और शासन- प्रणालीका कोई लेखा नहों, साहित्यिको एवं कवियोका कोर्ट परिचय नहीं। औौर-तो-और, हमारी आँखोंके सामने कल-परसों गुज़्रनेवाली विभूतियोका कही उल्लेख नहीं, और ये जो दो-चार बडे-बूढ़े मौतकी चौसटपर खडे है, इनसे भी हमने इनके अनुभवोको नहीं सुना है, और आायद भविष्यम दस-पाँच पीढीम অন্ন लेकर मर जानेवानों तकके लिए परिचय लिखनेंवग उत्साह हमारे समाजकों नहीं होगा । प्राचीन इतिहास न सही, जो हमारी आंखोके सामने निरन्तर गृखर रहा है, उसे ही यदि हम बटोरकर रस मक, तो यायद इसी वटोरनमे कुछ जवाहरपारे भी आगेकी पीढीके हाथ लग जाएँ । उसी दृष्टि से-- यीती ताहि बिसार दे आगेकी सुध लेहि नीतिके अनुसार सस्मरण लिखनेका टरते-डरते प्रयास किया । डरते- डरते इसलिए कि प्रथम तो में सस्मरण लिसनेकी कलासे परिचित नही । दूमरे अत्यन्त सावधानी वरतते हुए भी यत्र-तत्र आत्म-विज्ञापनकी गन्ध-सी आने लगी । नौसिखुआ होनेके कारण इस गन्धकों निकालमेमें समर्थ न हो सका। तीसरे मेरा परिचय क्षेत्र भी अत्यन्त सकुचित और सीमित था । फिर भी साहस करके दो-एकं सम्मरण, पोको भेज दिये । प्रकाशित होनेपर ये अनसंवरी टेढी-मेढी रेसाएँ भी अपनोको पसन्द आईं, और उन्दीके आग्रहपर ये चन्द सस्मरण गौर लिखे जा सके । इन सस्मरणोंको ज्ञानपीठकी ओरसे पुस्तकाकार प्रकाशित करनेकी चाच उरी तो मे स्वय यह्‌ प्रयत्न अधूरा और छिछोरापन-सा मालूम देने लमा 1 “इन्दी महानुभावोके सस्मरण क्यो प्रकाशित किये जाये, 'जमुक-अमुके महानूभावोके सस्मरण भी क्यो न प्रकाशित किये जायें ?” यह स्वाभाविक प्रइन उठना लाचिमी था । लोकोदय-न्थमालाके विद्वान्‌




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