हिन्दुस्तानी त्रैमासिक शोध पत्रिका [जनवरी-दिसम्बर 1967] | Hindustani Tramasik Shodh Patrika [Jan To Dec 1967]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रक १४ कविता का क ख़ ग १९ विष्लेवन का परिणाम या तो असाताब होगा या परागलखावा यथा सींकने या দলীল कक्ष ¦ हमारे चारों और क्या हूं ? अमर नतव्ोकरग, समूदीकरण, हिव्लर, यैलीकाह्‌, व्यवसाय का बेतार के तार की तरह फेला हुआ साज्राज्य, श्रहृस्मन्यताएँ और कुंठाएं, युद्ध, श्रीधी खापडियों का फेनायिस हेला और प्रजातंत्र |अब यथार्थ का सहन कर पाना फलिन होगा, तब उससे सईद के लिए निरचय ही अस्वस्य पलायत जस्म लेसा । यथार्थ को सहन करने शोर उन অর্জন द्वारा प्रेपणीय बसाने के लिए जिस श्रतिरिक्त क्षमता की जरूरत है, उसका पर्याय यह फ्लामस आसानी थे ही जायमा | तव शायद चन्ने था स्वयं को भुला या ইলা ইনি দাদী শ্বাস कौ जन्यत प्न | ठव नये प्रादभ (हवस्य) का एकं नया, समानी, सपनी रदुस्वमय लोक शायद दीख आधया! ग्रीनक्िच ने रुका चेतता-प्रवाह जेम्स जॉयस के चेतना-पवाह से अधिक उद्दीध ही जायगा, और गतिमय होकर कहां तक फ्रेलता जायगा, बहा नहीं जा सकता । तब सीत-शारऋ শি ईसर और पंचतंत्र तक रह सकेगा, वह आंतरिक्त अनुनासन के लिए सज्रुरा झीर बेमानी हो जायगा, बह मात्र वच्दत साबित होगा। तब स्वच्छदता का जगह अपजार बार स्वराचार जन्म संगे | आदिम! का शअ्रर्थ था तो सकी हां जायगा या माव लिया झायगा था खुद बे लोग 'ग्रादिम” के नास पर शुहामासव हो जायेंगे । अपनी प्रयोगद्रोलता के लिए खुले आम, জিনা विचित्र-विचित्र ढंगः से किसी की जात ले लेंगे या इच्धिय-यूस्ति के लिए नमे और बीह४ सावन झौर तरीके श्रपनायेंगे । मुक्तकुत्तला ग्रराजकता संसार में छुट्टा। धुमगी । भाषा में तब व्याकरणविदवीन खाबा झोर अग्ुओं के फूल खिलेंगे। अबुद्धिवादी इस स्थिति से जिसमें या तो नरक होगा--वास्तविक था काल्निक, था एक नया--चाहे वह्‌ जया भी हो - विश्या भिन्र के नये संसार की तरह एक संस्तार उद्ित होगा। लोग इन सारी बातों से चौकिंगे । ভর হাল লাল लेंगे, बल्कि बढ़ी सही और जरूरी लगना स्वाभाविक हो जायगा | अविकसित लोगों और पिछड़े देशों में, भूठी पड़ गयी दवाइयों की तरह उनका भी आवात हीगा और ने टिइडी-दन की तरह छा जाय॑गे | दूसरी ओर इस तरह की रचताझों से बलीशाह चुनाव करेगा कि क्या प्रकाशित किया शाव कि जनता का मिट्टी के लोंदे जैसा मानस और “प्रुरकुस श्रात्माः राजनय झौर श्र्ष-तंथ में हुट जाय সীল दूद जाय, यहु सोचता बन्द कर दे और अफ़ीमचियों की तरह इस सूक्ष्म अमुर्त अफोम का सेवन करके गहरे खर्राद्ट लेती रहे, अश्लीलता की तयी परिभाषाएँ 'मदन-सोंदक' की तरह बाँट दी जायें, गंभीर लगने वाली उसकी पत्रिका में फिर वही चये जो द्वितीय कोटि के साहित्य के नाम से फ़ूटपाथ पर बिंकला हैं। और व्याख्याता नये आदोलन चलाते रहे, रतमाकार और थेलीश्ञाहु यश और द्रव्य का अपना-अपना नक्शा बना ले, उधर कोई तस्कर-ध्यापार के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापी दल से इस तरह के बसेडी-भँगेडी मुस्तुमा स्वनाकार की दातकाटी रोटी सिद्ध कर दे, लेकिन येलीज्ाह के बंद डिब्बों में छिपी श्रफीम, किंदाबों में विकती मारिजुआना, अनुवादों से आती पेयोट, व्यावताधिक हथकंडो से प्रायातित नींद की गालियाँ मैदान में दोढती हवा की तरह मुक्त भाती रहें




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