मानव - शरीर - रचना - विज्ञान | Manav Sharir Rachna Vigyan
श्रेणी : आयुर्वेद / Ayurveda, स्वास्थ्य / Health
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15.92 MB
कुल पष्ठ :
283
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. मुकुंद स्वरुप वर्मा - Dr Mukund Swarup Verma
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दे '.. सानिव-दारीर-रचना-विज्ञान
के परिव्तनों का परिणाम एक साथ स्पष्ट होता हैं । केन्द्रक में विशेषतया क्रोमेंटिन के क्रम में:
परिवर्तन होते हैं जिनसे उसके सू्जों का लम्बाई की और से.विभाग होता' है । इस प्रकार इस विभाग से ,
क्रोमेटिन के सूचों की संख्या ठीक दुरुनी दो जाती है । द्ाकर्पक-मण्डल के परिवर्तना से, वह रेखाएँ:
बन चाती हैं निनकें द्वारा क्रोमेटिन के विभक्त की आपधी-श्ाधी संख्या कोपारणु के एक सिरे
से दसरे सिर को चली जाती हैं श्रोर ' इस मा ति प्रत्येक नवीन कोपारु में खून्खरडों की समान संख्या
पहुँच जाती हैं |
इन सच परिविसनों के क्रम को विंतन्त्रण या विपम विमजन कहा जाता है । व्याख्या की
सुविधा के लिए इनको ' चार में चाट दिया गया है; जिनको ( १ ) पूर्वावस्था'
(२३ विभिनावस्था; ( ३ ) परावस्था और ( ४ ) अन्तावस्था कहते ह -
पूर्वाचस्था--इस में कोमेटिन के क्रम में परिवत्तेन दोकर वह एक शुच्छे के रूप मैं
रा जाता है । समस गुच्छा एक दी सूत्र का चना हो सकता हैं जो साधारण तागे की पिंरडी के समान
होता है। अथवा एक सूत्र के खरिडत होने से श्रनेक छोटे-छोटे सूत्र उत्पन हो जाते हैं श्रीर वें फिर से मिलकर
्रोमेटिन का गुच्छा चना देते हैं । इस दशा को “संदत गुच्छु” की दवस्था भी कहते हैं । तसपश्चात् शुच्ठे के
सूच छोटे, मोटे श्रौर एक .दूसरे से प्रथक होने प्रारम्थ होते हैं । यदि प्रथम क्रोमेंटिन का एक दही सब था .
तो बह कई मागें में विभक्त हो लाता है और प्रत्येक भाग मोटा, संकुचित श्रौर प्रथक होने लगता
है | इसकों 'विच्छिन गुल्छां” कहते हैं ।' कुछ समय के पश्चात् बह सन भी कई खरडों में विभक्त
दो जाते हैं- | यह खण्ड मुड़े हुए मोटे डण्डे की भी ति गहरे रज्युक्त दिखाई देते है । इनको क्रोसोसोम'
कहते हैं। इन्हीं के द्वारा माता-पिता के गुणों का सन्तान में अवतीर्ण होना माना जाता हैं ।
की प्रत्येक जाति में इनकी एक विशिष्ट संख्या पाई जाती है । न केवल जन्दु किन्तु इच्नों में मी इनकी.
संख्या निर्दिर होती है जिसमें कमी भिन्नता नहीं पाई जाती । सनुष्य में इनकी संख्या २४ पाई लाती
यह भी देखा गया है कि उच्च श्रेणी के में यह संख्या सम श्राथात् र से विभाज्य होती है
इस समय केन्द्रक का आवरण श्रौर केन्द्रकाणु दोनों नष्ट हो जाते हैं शरीर केन्द्रक-सार कॉप-सार मैं
मिल जाता है । इस कारण क्रोमेटिन के खण्ड भी, जिनका श्ाकार १/ के समान होता है, कोपसार
में स्थित होते हैं। १/ का शिखर कोपारणु के शुच की ओर तथा ४ -के खुले हुए मुख
सध्यरेखा की श्रोर रहते हूँ ।
लिस समय के क्ोमेंटिन में बद्द सब परिवर्तन होते हैं उत समय झ्ाकर्क-मणडल भी
निष्क्रिय नहीं खुता ! दाकर्पक विन के विभाग से दो वित्दु बन जाते हैं। दोनों के चारों
तर उसी प्रकार स्थित हो लाता है जैसे पदले विन्दु के चारों द्ोर था । श्रर्धात् बिन्डु के
चार द्लोर आद्यसार सम की रडिमर्वो की भाँति रेखाओं में स्थित हो जाता हें । यद 'द्वितारका”
न्दलाती है । तारक एक दुसरे से प्रृथक् दोने लगते हैं ओर म्रत्वेक तारक कोपाणु के श्र की दर को
गति करने लगता हैं। उनके साथ दी उनका रश्मि या रेखा-मरडछ भी के श्रव की शोर को
सरकता हैं । किन्द दोनी तारकी की रेखाएं चीच में एक दूसरे की रेख्राद्रों से मिटी रहती है । इस
कारण दोनों तार्कों के दीच की रेस्वाएँ तक के समान दिखाई देने लगती हैं । तारका खीर यह तर्क
रनों की मली भांति नहीं ग्रहण करते । इस कारण दनकों 'द्वणुश्राही तक” कहते हैं । इस तर्क की
रेन्वाओओं द्वार दी कोमोसोम कोपाएपु के विरुद्ध थ्ुव्ों पर थापने निर्दिट स्थान तक पहुँचकर नवीन केन्द्रक. .
टू
नि
१. रे. ऊतक: 5. ४. १. हद
User Reviews
No Reviews | Add Yours...