मानव - शरीर - रचना - विज्ञान | Manav Sharir Rachna Vigyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दे '.. सानिव-दारीर-रचना-विज्ञान के परिव्तनों का परिणाम एक साथ स्पष्ट होता हैं । केन्द्रक में विशेषतया क्रोमेंटिन के क्रम में: परिवर्तन होते हैं जिनसे उसके सू्जों का लम्बाई की और से.विभाग होता' है । इस प्रकार इस विभाग से , क्रोमेटिन के सूचों की संख्या ठीक दुरुनी दो जाती है । द्ाकर्पक-मण्डल के परिवर्तना से, वह रेखाएँ: बन चाती हैं निनकें द्वारा क्रोमेटिन के विभक्त की आपधी-श्ाधी संख्या कोपारणु के एक सिरे से दसरे सिर को चली जाती हैं श्रोर ' इस मा ति प्रत्येक नवीन कोपारु में खून्खरडों की समान संख्या पहुँच जाती हैं | इन सच परिविसनों के क्रम को विंतन्त्रण या विपम विमजन कहा जाता है । व्याख्या की सुविधा के लिए इनको ' चार में चाट दिया गया है; जिनको ( १ ) पूर्वावस्था' (२३ विभिनावस्था; ( ३ ) परावस्था और ( ४ ) अन्तावस्था कहते ह - पूर्वाचस्था--इस में कोमेटिन के क्रम में परिवत्तेन दोकर वह एक शुच्छे के रूप मैं रा जाता है । समस गुच्छा एक दी सूत्र का चना हो सकता हैं जो साधारण तागे की पिंरडी के समान होता है। अथवा एक सूत्र के खरिडत होने से श्रनेक छोटे-छोटे सूत्र उत्पन हो जाते हैं श्रीर वें फिर से मिलकर ्रोमेटिन का गुच्छा चना देते हैं । इस दशा को “संदत गुच्छु” की दवस्था भी कहते हैं । तसपश्चात्‌ शुच्ठे के सूच छोटे, मोटे श्रौर एक .दूसरे से प्रथक होने प्रारम्थ होते हैं । यदि प्रथम क्रोमेंटिन का एक दही सब था . तो बह कई मागें में विभक्त हो लाता है और प्रत्येक भाग मोटा, संकुचित श्रौर प्रथक होने लगता है | इसकों 'विच्छिन गुल्छां” कहते हैं ।' कुछ समय के पश्चात्‌ बह सन भी कई खरडों में विभक्त दो जाते हैं- | यह खण्ड मुड़े हुए मोटे डण्डे की भी ति गहरे रज्युक्त दिखाई देते है । इनको क्रोसोसोम' कहते हैं। इन्हीं के द्वारा माता-पिता के गुणों का सन्तान में अवतीर्ण होना माना जाता हैं । की प्रत्येक जाति में इनकी एक विशिष्ट संख्या पाई जाती है । न केवल जन्दु किन्तु इच्नों में मी इनकी. संख्या निर्दिर होती है जिसमें कमी भिन्नता नहीं पाई जाती । सनुष्य में इनकी संख्या २४ पाई लाती यह भी देखा गया है कि उच्च श्रेणी के में यह संख्या सम श्राथात्‌ र से विभाज्य होती है इस समय केन्द्रक का आवरण श्रौर केन्द्रकाणु दोनों नष्ट हो जाते हैं शरीर केन्द्रक-सार कॉप-सार मैं मिल जाता है । इस कारण क्रोमेटिन के खण्ड भी, जिनका श्ाकार १/ के समान होता है, कोपसार में स्थित होते हैं। १/ का शिखर कोपारणु के शुच की ओर तथा ४ -के खुले हुए मुख सध्यरेखा की श्रोर रहते हूँ । लिस समय के क्ोमेंटिन में बद्द सब परिवर्तन होते हैं उत समय झ्ाकर्क-मणडल भी निष्क्रिय नहीं खुता ! दाकर्पक विन के विभाग से दो वित्दु बन जाते हैं। दोनों के चारों तर उसी प्रकार स्थित हो लाता है जैसे पदले विन्दु के चारों द्ोर था । श्रर्धात्‌ बिन्डु के चार द्लोर आद्यसार सम की रडिमर्वो की भाँति रेखाओं में स्थित हो जाता हें । यद 'द्वितारका” न्दलाती है । तारक एक दुसरे से प्रृथक्‌ दोने लगते हैं ओर म्रत्वेक तारक कोपाणु के श्र की दर को गति करने लगता हैं। उनके साथ दी उनका रश्मि या रेखा-मरडछ भी के श्रव की शोर को सरकता हैं । किन्द दोनी तारकी की रेखाएं चीच में एक दूसरे की रेख्राद्रों से मिटी रहती है । इस कारण दोनों तार्कों के दीच की रेस्वाएँ तक के समान दिखाई देने लगती हैं । तारका खीर यह तर्क रनों की मली भांति नहीं ग्रहण करते । इस कारण दनकों 'द्वणुश्राही तक” कहते हैं । इस तर्क की रेन्वाओओं द्वार दी कोमोसोम कोपाएपु के विरुद्ध थ्ुव्ों पर थापने निर्दिट स्थान तक पहुँचकर नवीन केन्द्रक. . टू नि १. रे. ऊतक: 5. ४. १. हद




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