लावण्यमयी | Lavanyamai

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Lavanyamai by पं. किशोरीलाल गोस्वामी - Pt. Kishorilal Goswami

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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'पन्‍न्यारत | बुर गया था, पर खिड़की ভুনা थी, इलसे चॉद्नी रात के कारण घर बिठकुल अखबेरा भी नही था। सो उतने हो उजाले में বানান में स्पष्ट वेखा कि, 'एक रपणी घीरे घीरे द्वार की शोर ज्ञारही है | वह्‌ भाव, वह ऋऋ ओर चह गहन सो वाबूसाहब गाजन्म न थूकेंगे | सो थे भी उस्र सूर्ति के पीछे कपटे, फट इतने दी में घह सूर्ति भन्तर्थान हागई ! चे क्षण भर में घर से बाहर आए, पर झूर्ति कहां ? क्या धह हवा में मिछ गई ! | बावूखादब ने घबड़ाकर नोौकरों को ज्ञोर से पुकारा। उनके चिल्लामे से घर में बड़ा हल्ला ग्रख गया और स्त्री जन भयानक चोस्फार करने रूग़ी । अप्सु, दीप बराज़ा गया और सतमों ने स्कु उपद्वव का कारण दायूसाहन से पुछना आरड्ग किया, पर वायूलाहब कुछ भी नहीं ऋद्द सके | इसो कि न जाने उन्होंने कैसा असांघारण ফল देखा और अद्वितीय स्वर खुना था, कि किसके विचारखागर में थेमग्नथे। ভন্ছাল জনন লন का खाव ঘন करके नौकरों से ऋदहा,-- “छर में शायद खोर आधा था, चारोओर देखो |” चार का माम झुनते दी स्वभायतः सभी सयभीत हुए, एस आर खादमी दूर बाघकर ओर लालटेन लेकर भीतर बाहर अच्छी नरह देखने लगे, पर फहीं मी चोर का पता न छगा। रात इसी समर में कटो, फोई मी निद्वादिती की सेचा न ऋर सका | बाबुसाहब को भी नोंदू न आई। उनको अद्भुन दशा थी, शाँखि अद्‌ करनं पर चही सुर्ति नेत्रों के आगे दिखाई देती थी भौर खोलने पर कदो छख नहीं |} ¦ र নি




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