जैन सिध्दान्त | Jain Sidhdant
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
202
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १३ )
यददि फिर भी उस कलश मत्संडयारदे द्रव्य प्रविष्ठ करें तो
परदेश दे जाते ह उसी भकार आकाश दरव्यम जीद द्रव्य अजीव
ठष्रे हुए ६1 आपेतु जेसे भूमिका नागईत ( कीला )
को स्थान भाष्त हो जाता हे तद्वत ही आकाश प्रदेशों में अनंत
प्रदेशी स्कंध स्थिति करते ई क्योंकि आकाश द्रव्यका लक्षण ही
अवकाश रूप ই।
অর্জন
भष, ২
अय् ड द् जावका रुक्षण कहत হঃ
वतणएा लक्खणे कालो जवो उवसोग
लक्खछणो नाणेणं दंसणेएंच सुदेएय दुहेएय ||
उत्त० ० ४५ गाया १०॥
दत्ति--पचेते अनवच्छि्नतेन निरन्वरं भवति इति वरद.
না सा दना एव रक्षणं छिदं यस्येति वर्चनाटक्षणः का
उच्यते तथा उपयोगो पतिज्लानादिकः स एव छक्षणं यत्व स
उपयोगरक्षगो जीव उच्यते यतो हि ज्ञानादिभिरेव जीवों
द्यते उक्त रक्षणत्वात् पुनादिभेप रस्षणमाई हानेन दितनिपाव.
योधेन च युनदंशेनेन सामान्यायदोधर्ूपेण च पुनः सुखेन च घु
नदुखेन च सायते घ जीव उच्यते [| १० ॥
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