जैन सिध्दान्त | Jain Sidhdant

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Jain Sidhdant by परमानन्द जैन - Parmanand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ ) यददि फिर भी उस कलश मत्संडयारदे द्रव्य प्रविष्ठ करें तो परदेश दे जाते ह उसी भकार आकाश दरव्यम जीद द्रव्य अजीव ठष्रे हुए ६1 आपेतु जेसे भूमिका नागईत ( कीला ) को स्थान भाष्त हो जाता हे तद्वत ही आकाश प्रदेशों में अनंत प्रदेशी स्कंध स्थिति करते ई क्योंकि आकाश द्रव्यका लक्षण ही अवकाश रूप ই। অর্জন भष, ২ अय्‌ ड द्‌ जावका रुक्षण कहत হঃ वतणएा लक्खणे कालो जवो उवसोग लक्खछणो नाणेणं दंसणेएंच सुदेएय दुहेएय || उत्त० ० ४५ गाया १०॥ दत्ति--पचेते अनवच्छि्नतेन निरन्वरं भवति इति वरद. না सा दना एव रक्षणं छिदं यस्येति वर्चनाटक्षणः का उच्यते तथा उपयोगो पतिज्लानादिकः स एव छक्षणं यत्व स उपयोगरक्षगो जीव उच्यते यतो हि ज्ञानादिभिरेव जीवों द्यते उक्त रक्षणत्वात्‌ पुनादिभेप रस्षणमाई हानेन दितनिपाव. योधेन च युनदंशेनेन सामान्यायदोधर्ूपेण च पुनः सुखेन च घु नदुखेन च सायते घ जीव उच्यते [| १० ॥




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