भारतीय साहित्य और संस्कृति | Bharatiy Sahity Aur Snskriti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) भारत में जब तक जीवन के प्रति व्यापक दृष्टिकोण रहा, जब तक वसुधव कुटुम्बकम्‌' की उदार भावना हमारे लोक-मानस को आंदोलित करती रही तब तक हम संसार में ऊंचे उठे रहे । हमने ज्ञान-विज्ञान के विविध क्षेत्रों में दूसरे देशों के साथ आदान-प्रदान करने में संकोच नहां किया । 'कृषण्वन्तो विश्वमाय म्‌' की कल्याणकारी भावना से प्रेरित होकर हम श्रपने श्रगाध जान श्रौर अनुभव कां उदारता के साथ दूसरों में वितरण करते रहे । साथ ही दूसरों की उपयोगी बातों को ग्रहण करने में भी हमने संकोच नहीं किया । ग्रायभटर, वराहमिहिर आदि विद्वानों ने अपने समय के इस व्यापक दृष्टिकोण की ओर इंगित: किया है। वराहमिहिर ने लिखा है कि ज्ञान की कुछ दिशाओं में म्लेच्छ कहे जाने वाले यवन ग्र्थात्‌ यूनानी लोगों की अच्छी गति है; अतः वे ऋषियों के तुल्य ही पृज्य हैं :--- “म्लेच्छा हि यवनास्तेपु सम्यक्‌ गास्त्रमिदं स्मृतम्‌ । ऋषिव्तेपि पूउ्यन्ते'*** '*****(बृहत्संहिता, २, १४) । हमारी उक्त उदार भावना की अभिव्यक्ति न केवल प्राचीन साहित्य में मिलती है, अपितु विदेशी यात्रियों के वर्णनों तथा प्राचीन कला- विशेषों में उपलब्ध है | यूनानी, चीनी, अरब, मुसलमान एवं यूरोपीय यात्रियों में से अनेक ने इसकी औ्ोर अपने यात्रा-विवरणों में संकेत किया है । भारत, लका, बर्मा, हिन्दचीन, हिन्देशिया, नेपाल, तिब्बत, मध्य- एशिया आदि में बहुसंख्यक भारतीय मन्दिरों, स्तूपों, संघारामों एवं विविध प्रतिमाओ्रों के जो अवशेष सुरक्षित हैं वे उपर्थुक्त भावना के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । हमारी विद्ञाल प्राचीन कलाराशि आज विद्वानों के अध्ययन- अनुसंघान का मुख्य विषय बनी है। इसके सम्यक श्रालोडन से हमे इतिहास के नवीन तथ्यों की तो जानकारी होगी ही, साथ ही अनेक उन अआ्रांत धारणाओं का भी निम्‌ लन हो सकेगा जो कुछ लेखकों द्वारा जाने- अनजाने प्रचलित कर दी गई हैं । प्रस्तुत ग्रंथ के लेखक डॉ० हरिदत्त शास्त्री अपने विषय के मान्य




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