अखण्ड ज्योति | Akhand Jyoti

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Akhand Jyoti by सिद्धान्ताचार्य - Sidhantacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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व, ~ ७0. = द এ = ड 8 হন, ৯ টি के রি हु | थे २ তে নও अ ~~ & ভি = টি { ০ এ পাশা এব -~ न £ পু ০ ३ र य ८ 7 ই হে ४ 1 ১ ५६ ৫ | 1 ८ ॥ ( | ৪৬ ॥ এ ५५८ ५ ॐ कम | 4৯ নর है डक अनूष्य गया-गुजरा उस स्थिति मेँ--जव अंपनी सामथ्ये, बैठ सकते हैं,” उंसे विना शक्तिशाली सूक्ष्म-दश के य्त्र को पहचानने और उसका उपयोग करने. मे उपेक्षा वरतं। के खुली आँखों से तो देखा . तक नहीं जा सकता गिरति महान और असाधारण उस स्थिति में जब वह अपनी - क्रिया से जो. मंन क्रिया होती है 1 . उससे यौन संस्थान, गरिमा को समझे ओर असीम क्षमता पर विश्वास करे। में तीन्र विद्यू त स्पन्दन उठने आरम्भ हो जाते हैं। उन्हीं | साधारणतया यह आत्म-विश्वास की कमी ही वह कठि- की उक्तेजना से वह शान्त पड़ा. जीव उत्त जित हो उठता . . नाई है जिसके कारण हेय स्थिति में रहना पड़ता है। . -है और अपनी स्वतन्त्र सत्ताका निर्माण करने के लिए ४ मनुष्य की क्षमता का एक छोटा उदाहरण उसकी सहयोगी की तलाश में द्र तगति से परिभ्रमण करता है.। . आरम्भिक . स्थिति “भ्रणावस्था' की गतिविधियों का उंस समय उसेके हाथ, पैरं, -आँख आदि कुछ नहीं होते पर्यवेक्षण “करते हुए सहज ही किया ज़ा सकता है अपनी तो भी अपनी आन्तरिक आकाक्षाः से प्रेरित होकर अभीष्ट सत्ता के. प्रकटीकरंण अवसर पर साधन रहित स्थिति में साथी.को खोजने के लिए इसी तेजी से दौड़ता है कि. ... यदि. इतना- अधिक पुरुषार्थ किया जा सकता है। तो हिरन, चीते की दीडसे भी उसका अनुपात - बहा-चढ़ा ` साधन सम्पन्न ओर विकसित स्थिति में अपेक्षाकुत और रहता है . । 1 भीः अधिक पराक्रम ` कर सकना सम्भव होना :चाहिए {शुक्राणु को डिम्वाणु. तक पहुँचतें में---अपने आकार . : किन्तु 'देखा यह जाता है कि श्री गणेश का उपक्रम पीछे - और स्थान की दूरी के अनुपांत से उतनी लम्बी यात्रा चल कर शिथिलता की दिशा में बढ़ते लगता है और करनी पड़ती है जितनी 'कि उसे मनुष्य की बराबर आकार : - क्रमशः.ठंडा होता चला जाताहै। इसे दुर्भाग्य ही कहना का होने पर पूरी पृथ्वी . की दूरी .नापनी पड़ती । इस चाहिए। अन्यथा कोई कारण नहीं कि आरम्भ में जिस . यात्रा पर स्खलन के समय लाखों शुक्राणु अभीष्ठ मनोरथ स्तर की, सक्रियता अपनाई गई थी, उसमें. शिथिलता. की पूर्ति के लिए निकलते हैं। इसे उर्वी की घुड़ दौड़ आने लगे । यह नहीं सोचा. जाता. चाहिए कि आरंम्भ के संमतुल्य प्रतिस्पर्धा माना जा सकता है । प्रकृति स॒वल्‌ . में. विशेष क्षमता ' होती है ओर वह पीछे . स्वयंमेव घट को सफलता देने की नीति अपनाती है ।..जो उस लम्बी * - जाती. है। वीज से अकुर:निकलते संमयं, अंकुर को और कष्ठ साध्य यात्रा में अन्त तक प्रबल पुरूपाथं नही पौधा वनते समय जो प्रगति क्रम दृष्टिगोचर होता है वह कर पाते, बीच में. ही थक कर. बैठ जाते हैं, वे दम तोड़... पीछे समाप्त, यां शिथिल 'कहाँ होता-है ? उस विकास . देते हैं.। जो अणु प्राणपण का साहस केरता है वही सफलं ह . प्रक्तिया में फ्रण: अभिवृद्धि ही होती चलती है, . फिर होता है - और प्रूण बनने का--प्रगति पंथ पर अग्रसर! ` कोई कारण नही करि प्रथम चरण में मनुष्य द्वारा किया' होने का--्रे य प्राप्त करता =; রি এও जांने वाला पुरुपार्थ आगे चलकर. अधिकाधिक तीज्र न --..ঘুক্ত জীব डिम्ब का मिल क्र वना हुआ कलल .. होता चले | यदि इसी क्रमिक .विकास की प्रक्किया को।. बिजली की नेगेटिव और पाजेटिव दो-दो धाराओं के अपनाये रहा जाय, उसमें शिथिलता न आने दी जाव জী) सम्मिलिन से उत्पन्न शक्ति प्रवाह की तरह सक्रिय हो. मनुष्य देव या दैत्य स्तर के- बढ़े-चढ़े काम करता रह।. उठता हैं। गंगा यमूना का यह्‌ मिलना तीर्थराज संगम्‌ ` _ सकता है। -.. শি ९ ‰ वनता है सहयोग ओर सहकारिता का- मत्री भौर पतिकेणरीर से निकला हुंभा शुक्राणु इतना छोटा साधन आत्मीयता का-जीवन के पहले ही दिन जो पाठ होता है कि.ञ्ालपिन कौ नोक पर उसके हनारो भाई. पदा जाता है} उसका सत्परिणाम तत्काल देखने को अखण्ड-ज्योति = = - ` १३. ` _ ~ . .. ` ` माच १६७७.




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