माणिभद्र : पुष्प - 39 | Manibhadra : Pushpa-39

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Manibhadra : Pushpa-39 by मोतीलाल भड़कतिया - Motilal Bhadaktiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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/ শিলা হা হা “(जिन ख्दज्ट ভিজ হেত ৪ विशाल सागर को अनेक नामों से पुकारा जाता है जिसमें एक नाम रत्नाकर भी है। सागर के तल में विविध रत्न पडे हैं अतः इसका रत्नाकर नाम भी सार्थक है | लेकिन सागर में रहे रत्न जिसको पाने है उसको सागर की गहराई में जाना पडता है । जो गहरे पानी में गोता लगाता है उसके ही हाथ में रत्न चढ़ते है । जो गहराई में जाने के परिश्रम से डरकर किनारे पर ही खडा रह जाता है उसे तो सिर्फ शंख व छीपले ही हाथ चढते है । अतः कवि ने ठीक ही कहा है कि-- ^“जिन खोजा तिन पाईया, गहरे पानी पेठ बोरी दढन मै गई, रही किनारे बैठे“ आध्यात्मिक जगत में भी यही बात लागू पडती है । जिन्होने आत्मिक सुख व शाश्वत शाति पाने का लक्ष्य बाधा उन्होने भीतर मे खोजना शुरू किया | बाहर से दृष्टि बंद करके भीतर दृष्टि लगाई । गहराई मे गोता लगाया ओर एक दिन चैतन्य मूर्ति ज्ञानानदमय भगवान आत्मा का साक्षात्कार किया | महात्मा आनंदघन जी ने अजितनाथ प्रभु की स्तवना करते लिखा... “चरम नयण करी मारग जोवतोरे, भूल्यों सयल संसार --मुनिराज श्री पुण्यरत्नचन्द्र जी म.सा., जयपुर जेणे नयणे करी मारग जोईये रे, नयण ते दिव्य विचार बाहर की चर्म दृष्टि से देखता हुआ सारा संसार भटक गया है | जिस दृष्टि से सच्चामार्ग दिखता है उसको दिव्य नयन की संज्ञा दी है। श्रीमद्‌ राजचन्द्र जी ने आत्मसिद्धिजी में लिखा- एक होय तीन काल में परमारथ को पंथ“ भूतकाल मे भी यही मार्ग था, वर्तमान मेँ भी यही मार्ग है ओर भावी में भी यही मार्ग रहेगा | जिसको सच्चिदानंद भगवान आत्मा को पाना है ढूंढना है खोजना है उसको अंतर की गहराई में डूबकी लगानी होगी | विभाव से हटकर स्व- स्वभाव मे आना पडेगा | प्राणी मात्र की चाहना है मुझे सुख मिल जाय मेरे दुःख मिट जाय । किन्तु शांति चाहते हुए भी शाति को नही पा रहा है | क्योकि बाहर के साधनों में सुख नहीं वह न तो सिर्फ दुःख को कुछ समय के लिये दूर हटा सकते है । आज आदमी सुख की चाह में बडे बडे साधनों से सज्ज होता चला आ रहा है | अलग-अलग सेटो से सज्ज हो रहा है जैसा कि सोफासेट, डीनर सेट, टी. वी.




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