दूब और पानी | Doob Aur Pani
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
118
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about भगवती शरण सिंह - Bhagavati Sharan Singh
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दुब जौर पानी / 13
पशु थे, और उसको भी जो आस्य पशुओं को हानि पहुंचा सकते थे । मनुष्य ने अपने को
भी ग्राम्य पञ माना था । आयं जाति के ग्रंथों में मनुष्य को भी ग्रास्य पशु कहा गया है।
वन्य ववस्पतियों और ग्राम्य वनस्पतियों में और पशुओं में एक सामाजिक
रिश्ता कायम हुआ । इनकी सामाजिकता में ही वह पूरा मानव समाजः उभरा जिसने
ज्ञान-विज्ञान के सोपान को उच्चतम स्थान दिया। पुराने ग्रंथों में विशेषकर ब्राह्मण
ग्रथों में कई जगह वृक्षों की रचता को समझने और उनके महत्त्व को जानने के लिए
उनकी व्याख्या मनुष्य की शरीर-रचना के साथ की गयी थी। सब वृक्षों के साथ ऐसा
संभव नहीं हुआ पर जहां हुआ है वहां मनुष्य ने उन्हें अपने रूप में देखा है। ऐसा करते
हुए वनस्पतियों को मानव समाज में बड़ा ऊंचा स्थान मिला। उनमें कई प्रकार के वृक्ष
पूजनीय हौ गये, उनको काटना पापकर्म माना गया, और उनके द्वारा न केवल शारी-
रिक व्याधियों का उपचार होता था वरन् उन्हे आध्यात्मिकं स्थान भी दिया गया।
इसी क्रम में कुछ घासो को भी महत्त्व मिला जिनमें दर्वा, कुश ओर मूंज विशेष रूपसे
महत्ता पा गए।
दूर्वा आगे चलकर श्री और समृद्धि का प्रतीक बन गयी और भारतीय समाज
की आज कोई भी पूजा, उसका कोई यज्ञ, उसका कोई संस्कार ऐसा नहीं है जो दूर्वा
के बिना सम्पन्त होता हो। इतना अंतर अवश्य पड़ा है कि श्री और समृद्धि की प्रतीक
दूर्वा अर्थात दृव जो कभी हर आंखों द्वारा जानी-पहचानी जाती थी, जो हर घर,
गांव-पथ और विजन की कोमल भुस्कान थी, वह संकुचित होकर कुछ स्थानों में ही
फल-फूल रही है । आज घास के फूलों से बिछी हुई धरती की सेज कहीं-कहीं ही दिखाई
पड़ती है। कभी सोम केन मिलने पर अरुण दूर्वा अन्यथा हरित कुश की खोज होती
थी। दूसरे शब्दों में कहें तो सोम के बाद अरुण दूर्वा का ही स्थान था। लाल और
हरी दूव ओषधि थी। मनुष्य उसे ओषधि के रूप में भी अपनाते थे। पशु उसे खाते
भी थे और उसके ग्रुणयुक्त आहार से स्वस्थ भी रहते थे। जो कभी अमीर-1रीव का
भेद किये विना जन जन के घरों की शोभा बढ़ाती थी वही आज केवल कुछ श्रीमानों
के ही पदतल को सुख भौर सुषमा प्रदान कर रही है।आज अच्छी दूब, और अब
दूब की अनेक किसमें पंदा कर ली गयी हैं, कुछ वहुत ही समृद्ध घरों में ही उग रही है
और उनकी देखरेख भी प्रभूत घन की अपेक्षा कर रहा है। इस दृष्टि से भी यह थी
और समृद्धि का प्रतीक आज भी बनी हुई है। उस श्री और समृद्धि का, जो आम आदमी
से छित कर कुछेक के हाथों में वंधी छटपटा रही है ।
आज के इस जन संकुल देश में, औद्योगिक और तकनीकी प्रगति से आक्रांत
सभ्यता और संकृति के बदलाव की चपेट खाकर नी, यदि यह कहीं पड़ी रह जाये और
सुरक्षित रह सके तो इसे ही कुशल मानना चाहिए । विकसित देश्षों में इसकी रक्षा के
लिए कई प्रकार के प्रयत्न हो रहे हैं । इसकी रक्षा के अथ॑ में उन सब प्रयत्नों को शामिल
करना चाहिए जो वनस्पति मात्र की रक्षा के लिए किये जा रहे हैं। उन देथों में बड़े-
बड़े वनस्पति उद्यानों की स्थापना हई है । जपने देया मेँ भी उनकी जनुकृति की गयी
User Reviews
No Reviews | Add Yours...