वंशभास्कर एक अध्ययन | Vanshabhaskar Ek Adhyayan

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Book Image : वंशभास्कर एक अध्ययन  - Vanshabhaskar Ek Adhyayan

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डॉ॰ आलमशाह ख़ान
जन्म 31 मार्च 1936
निधन 17 मई 2003

प्रकाशित कृतियाॅं- पराई प्यास का सफर, किराए की कोख, एक और सीता, एक गधे की जन्म कुंडली (कहानी संग्रह) राजस्थानी वचनिकाएं, वंश भास्कर: एक अध्ययन, मीरा: लोक तात्विक अध्ययन (आलोचना), राजस्थान के कहानीकार, ढाई आखर (संपादित), "किराए की कोख" कहानी पर फिल्म तथा"पराई प्यास का सफर"कहानी पर टेली फिल्म निर्मित

संप्रति- पूर्व प्रोफेसर मीरा-चेयर एवं अध्यक्ष
राजस्थानी विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राज.)
सदस्य, राजस्थान राज्य मानवाधिकार आयोग, जयपुर

उदयपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रीडर और राजस्थानी विभाग में प्रोफ़ेसर रहे आलमशाह ख़ान क

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वक्तन्य राजस्थानी मापा प्रौर साहित्य के परष्पयन, प्रन्वेयणा एवं सूजन की दिता में विगत दशाब्दी में प्रभिनस्दतीय प्रगति हुई है । कई प्रज्ञात कृतियां एवं कृतिकार सम्मुख সাই तथा মাত্ব ঘামতী কা पुन: मूल्यांकन हुप्रा। भारचर्य है कि प्रध्ययत प्ौर प्रस्वेपण के इस क्रम में राजस्थान के सबछे बड़े भौर युग-प्रवरतंक মহাকবি सूर्यमलल मिश्रण का 'दशमास्कर' उपेक्षित रह गया । प्रो० कम्हैयालाल सहल द्वारा सम्पादित 'वोर सतसई' को भूमिका में सूर्यमलल के जीवन प्रादि के विषय में पहली बार साधग्री का सक्‍्लन हधा हित यहां भी, ससरं पर ही केन्द्रित रहने के कारए, इसके विषय में सूजवात्मक संकेत मात्र ही दिये गये हैं । অনয 16৭ में श्रद्धेप गुष्वर नरोत्तमदासजी सवारी ते मुझे 'बंशम।स्कर” पर शोष- प्रबन्ध प्रहतुत करने हेतु प्रहतत किया । उनके गुरु गभीर ঘাচহ সাজ গী হমহযা हैं---/ विषय एकदप भछूता भोर महत्त्वपूर्ण है; प्रध्यवसाय एवं लगन से जुटने पर स्थायी भरूल्य का कायं ढन सकता है ।” प्रस्तुत प्रबन्ध १४ भध्यायों में सम्पूर्ण हुधा है। प्रपानतण 'वशमास्कर' के साहित्यिक सदये के उदघाटन पर केंद्रित रहते हुए भी “वंश्मास्कर! भाषा-विवेचत, 'वंशमाएंकर সাং इतिह्ास', “बंश्ञमास्कर में राजसमाज की झलक एवं 'वंध्रमास्कर में कवि की बहुशता' जेषे अ्रध्यायों द्वारा प्रध्यपन को सर्वा ग-पृणं बनाने का प्रयास किया गया है । हदा कार एवं 'दुरूद भाषा' में रचित होने के कारए दंध्मास्कर के विषय में कुछ एक प्रटकर्लों के भतिरिक्त कहीं कुछ लिखा हुभा नहीं मित्रता | प्रतएवं इस भ्ष्ययन में मुझे झदनी सममं जो प्रपरिपषव है, से ही काम लेना पड़ा है। इस प्रकार यदि प्रषम प्रयास को मोलिक कहां णाय तो इस धष्ययत को सदंदा मौलिक कहा जा सकता है- प्रपनी समस्त ध्खलनाभों के साथ 1 যব दुष्प्राप्य है प्रतएव काब्यात्मक-स्पर्लों को मुक्त-माव से उद्धुत किया गया है-- विशेषकर 'वस्तु-वणंन! के विवेचन में जहाँ ध्रावश्यक सममा गया है वहाँ मूल के साथ उठका भधनुवाद भोदेदियागया है। यों यह प्रदन्ध वंशमाप्कर की विवेचना के खाद ही उसकी मूल 'काम्पश्री' से भो परिपूर्ण है 1 पते प्रध्यपत को पांच वर्ष की ध्रदर्धि में पर जब भो में हताथ हुपा थरद्धेय गरुदवर भरोहमदाषजो स्वामी ने प्पे मोन स्नेह भोर घमं मादते से भे पाथान्विद बताये रहा, कभी उछड़ने नहीं दिया । সন্ত तर वे मेरे शोष-कार्य के निदेशक रहे। प्रत्यधिक




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