पंत और उनका रश्मिबन्ध | Pant Aur Unaka Rashmibandh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
299
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्रासोचना भाग १५
भाती ह । भरतः यह् कद् जा सकता है कि “गुजन' में 'पन््तणी एक नवीन दिशा
भी भोर भग्रसर हो रहे हैं जिसमें जीवनातन्द की छलकती हुई मघुर-गागरें भी
हँ भौर प्राधा की श्निग्ध ज्योत्स्ता भी ।
कला-पक्ष की दृष्टि से भी गुंजन भत्यन्त सफल एवं समृद्ध है। इसमें
भावानुकूल भलंवारों का सहज तथा साथेक श्रयोग है । इसकी भाषा में प्रपूर्व
संगीतात्मगता का समावेश है । पन्त ली के शब्दों मे--“गुजन के भापा-संगीत
में एक सुधरता, मधुरता भौर इलदणता झा गई है जो पललव में नहीं मिलती ।
गूजन के संगीत मे एकता है, परलव के स्वरों में बहुलता । पललव की भाषा
दृष्य जगत् के रूप-रंग की बल्पना से मासल भौर पतलदित है, गुजन की भाषा,
भाद प्रौर বলনা ক सूड़म सौन्दर्य से गुजित ।
५. उपोतस्ता--कूच्दरूप की दृप्टि से 'ज्योत्स्दा' एक भाटिका है, विस््तु
दस नाटककार पन्त के नही, कवि पन्त के दर्शन होते हैं। यह पश्चात्य 'एलेगरी'
(41०8० ] के दंग का एक रुपक है जिसमे भ्रमूर्त भावों एवं विचारों का
सू्तिबरण जिया गया है। संक्षेप में इसका कयानक यह है कि संसार में सर्वत्र
धन्ति भोर भ्रश्ान्ति देखफर इर्दु उसके झासते की बागड़ोर भ्रपती महिषरी
ज्योत्तना को सौंप देता है। ज्योत्र्ता पृष्वी पर उतर पाती है भौर पवन,
सुरक्षि, रवप्न और कल्पना वी सहायता से सृष्टि का रंग-रुप हो बदल देती है.
जिससे धंझ्ार में प्रेम भौर सौन्दर्य वा स्वगे सावार हो उठता है। इस प्रकार
स्पोत्तना जीवन के नये भादशों वी स्थापना करके इसी भूमि वर स्वर् उतार
देहौ दै । यदी रयप्ननद्रप्टा पन्त के भादी स्वर्णिम समाज को रूप-रेजा है । दूरे
एब्दों में बह सकते हैं कि कात जो ने जो विशस्धित मानवदाद शौर वाल्पतिक
समाजवाद के सामंजस्य दवाएं ध्रपता नया स्वर्ग निर्माण किया है, उसी का उन्होंने
इस मा्टिशा में ध्ाख्यात जिया है।॥” उद्देश्य शो दृष्टि श्योत्दनः शयने
উহ में पूर्ण रूप से सफल है॥ श्ममें कला, प्रेम, सत्य, ध्ांसन झादि धनेक
जीवननतप्यो कठा सुन्दर उद्षाटन दरिया गया है! पन्वमो ने “ज्योत्स्ता' की
भहता एन शम्भो मे रविर्न की है-- मेरे कास्य-दर्शन कौ रुंजी निश्चय ही
क्योस्ता मे है ४४
६. युवान्त--उँसा कि नाम से ही সঙ্গত, হাঁ আক एन्तयी शी
दरिताप्रों के दुग गा অন্ত হয অতো है; प्र्चातनु “पत्लद बा भरएा-दनिष्ठ
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