श्रावक प्रज्ञप्ति | Sravak Praghyapit

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Sravak Praghyapit  by बालचंद्रजी शास्त्री - Balchandraji Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना ११ इस प्रकार प्रसंगप्राप्त कमंके भेद, उनको उत्कृष्ट व॒ जघन्य स्थिति तथा सम्यग्दर्शनकी प्राप्विके साधर्नोकौ प्ररूपणा करके आगे उस सम्यभ्दर्शनके विविध भेदो मौर उसके अनुमापक उपशम-संवेगादिषूपं कुष्ठ बाह्य चिह्तोंकी भी प्ररूपणा की गयी है ( ४३-५९ )। तत्पश्चात्‌ इस सबका उपसंहार करते हए तत्वार्थ- श्रद्धानरूप उस सम्यण्दर्शनके विषयभूत जीवाजौवादि तत्वार्थो व उनके मेद-परभेर्दोका विशदतापूर्वक विवेचन किया गया है ( ६०-८३ ) 1 प्रकृत सम्यर्दर्शनका परिपालन करते हुए जिन पाँच अतिचारोंका परित्याग करना चाहिए वे ये हैं-- है शंका, २ कांक्षा, रे विविकित्सा, ४ परपापण्डप्रशंसा मौर ५ परपाषण्डमंस्तवं । यहां प्रसंगप्राप्त इन अतिचारोंके स्वरूप, उनकी अतिचारता और उनसे आविर्भत होनेवाले पारलौकिक व ऐहिक दोषोंका भी दिर्दर्गन कराया गया है । ऐहिंक दोषोंका कथन करते हुए यहाँ क्रमसे ये उदाहरण भी दिये गये हैं--१ पेयापेय (दो श्रेष्ठिपत्र), २ राजामात्य, ३ विद्यासाधक श्रावक व ध्रावक-पुत्री, ४ चाणक्य और सौराष्ट्र श्रावक ( ८६-९३ ) । गाथा ८९ में प्रयुक्त आदि' गब्दसे यहाँ इनके अतिरिक्त अन्य अतिचारोंकी भी सम्भावना प्रकट की गयो है । यथा--साध भिकानुपबृंहण और साधमिक-अस्थितीकरण आदि ( ९४-९५ ) । सातिचार सम्यग्दर्शन चूंकि मुक्तिका साधक नहीं हो सकता है, अतएवं प्रकृत अतिचारोंके परित्याग- को प्रेरणा करते हुए यहाँ उन अतिचारोंको असम्भावनाविषयक शंकाको उपस्थित करके उसका सयुक्तिक समाधान किया गया है ( ९६-१०५ ) | इस प्रकार हस प्रासंगिक कथनको समाप्त करके प्रस्तुत बारह प्रकारके श्रावकघ्मके निरूपणका उपक्रम करते हुए यहाँ सर्वप्रथम स्थूलप्राणिवधविरमण आदि पाँच अणुक्नतोंका निर्देश किया गया है व उनमें प्रथम स्थूलप्राणिघातविरभणरूप अणुव्रतका विवेवन करते हुए उस स्थूलप्राणिधातकों सम्भावना संकल्प व आरम्मके द्वारा दो प्रकारसे बतलायी गयी है| गृहस्य चंकि आरम्भममे रत रहा करता है, अतगव वह उक्त स्थूरप्राणिवभ- का परित्याग केवल संकल्पयूर्भवक कर सकता है। हाँ, यह अवश्यहै कि आरम्मकार्यको मौ वह इतनो सावधानीसे करता है कि उसमे निरथंकर प्राणिवध नहों होता । प्रकृत अगुनश्नतको बहू मोक्षाभिलाषी होकर गुरुके पादमूलमें चातुर्मात आदि रूप कुछ नियत काल तक अथवा जोवन पर्यन्तके लिए भी स्वीकार करता है ( १०६-१०८ ) | प्रसंग पाकर यहाँ यह शका को गयी हैं कि जब श्रावकके परिणाम स्वयं देशविरतम्प होते हैं तब गुरुके समक्ष उस ब्रतका ग्रहण करना निरर्थक एवं गुरु क शिष्य दोनोंके लिए दोषकारक है। इस ठांकाका युक्तिपूर्वकं सुन्दर समाधान किया गया है ( १०९-११३ )। तत्पश्चात्‌ दूसरी शंका यह उठायी गयी हैं कि जो गुर मत, वचन और काय तीनों प्रकारसे प्राणिधात- का परित्यागी होकर पूर्णतया महात्रती होता है वह यदि श्रावकको स्थूलप्राणातिपातका ही परित्याग कराता है तो इससे उसकी सूद्ष्मप्राणातिपातमें अनुप्तति समझनी चाहिए और तब इय प्रकारसे उसका अहिमामहाव्रत कैसे धुरक्षित रह सकता हैं। इस शंकाका समाधान यहाँ सूत्रकृतागकका अनुप्तण करके एक सेठके छह पृत्रोंका दृष्टान्त देकर किया गया है ((१४-११८) । इसी प्रकारकी और भी अनेकों शंकाओंको उपस्थित करके उनका युक्ति और आग्रमके जाश्रयस्ते समाधान करते हुए प्रस्तुत स्थूलप्राणातिपातविरमण अणुन्नतका विशदनापूर्वक বিভবাংক্ষী साथ विवेचन किया गया है (११९-२५६) । तत्पदचात्‌ उपका निर्दोष परिपालन करानेके उद्देश्यसे उसके पाँच भतिचारोका निदंश करके उनके परित्यागके साथ त्रसरक्षणके लिए अन्यान्य प्रत्न करनेकी ओर भी सावधान किया गया है (२५७-२५९)। इस प्रकार प्रथम अणुब्रतका विस्तारसे निरूपण करके तत्पद्बात्‌ यथाक्रमसे स्थूलमृपावादविरति, स्थुऊअदत्तादानविरति, परदारपरित्याग व स्वदारसन्तोष और सचित्ताचित्त वस्तुविषयषक दृच्छापरिमाण दन शेष चार अणुश्नतोंका (२६०-२७९); दिख्त, उपभोग-परिभोगपरिमाण भौर अनथंदण्डविरति रूप तोन




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