समालोचना समुच्चय | Samalochana Samuchchay

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Samalochana Samuchchay by महावीरप्रसाद द्विवेदी - Mahaveerprasad Dvivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छ समालोचना-समु्यय घर्ताव किया जायगा । वे थों श्रव्रला श्रौर श्रचलावों का विशेष बल होता हे रोना ओर आक्रोश करता, सिसकतना ओर सिर धुनना । उसी का श्रवलम्ब्र उन्होने किया । वे लगीं राने। चड़ घडे ग्रांसुओं के साथ, लगा उनकी श्याखों का काज्नल बहने । मेंद्द उनके खूख गये । श्रव्युष्ण श्वासाच्करूसों की मार से उनके बिम्बाधर कुम्दला गये । बड़ी देर तक वे अपने पेर के अंगूटों से जमीन कुरेद्ती हुई ठगी सी खड़ी रहीं । हाय, बड़ा धोखा हुश्मा। यदह निष्टुरता ! हमारे अनन्य ओर निर्व्या परेम का यदह बदला! हमने जिसे पना सवेस्व समपेगा कर दिया उसका यष्ट निष्करप व्यवहार ! इसी तरह की बातें उन्होंने मन ही मन कीं। भगवान कृष्ण स्वयं ही जान सक्र होगे कि उनके उस्र धम्ममूततक ढके।सत्ले की दुहाई ने गोपियों के कमल-कामल हृद्यो पर कितना निष्टुर घञ््रपात किया होगा । खेर, अपने हाश किसी तरह थोड़ा बहुत संभाल कर उनमें से कुक प्रगहभा गापियों ने कृष्ण के सद॒पदेश का इस प्रकार सत्कार किया। वे बाली- सरकार, श्राप तो बहुत बड़ पणिडत-प्रघर निकले । परडत ही नहीं, धमणशास्त्री भी आप बन बेंठे । हमे श्रापक इन गुणो की द्म तक खबर ही न थी। आझापकी इन परमपावन कवठ्पनाश्यों का ज्ञान ता हमें ध्याज ही हुआ | प्राथना यह है कि ञआाप ध्यादि-पुरुष भगवान को भी जानते हैं या नहीं । मात्त की इच्छा रखने बालत मुमुत्त जन, अपना घर-द्वार, ख््री-पुत्र, धन-वेभव, सभी सांसारिक पदार्था का परित्याग करके जब उनकी शरण जाते हैं तब, आप ही की नरह, क्या वे मी उन मुमुज्ुओं के वेसा ही शुष्क उपदेश देते हैं ज्रेसा कि आपने हम लोगों के दिया ? क्या कभी कोई पुरुष भगवान्‌ के द्रबार या द्वार से उसी तरह दुरदुराया गया है जिस तरह कि आप हमें दुरदुरा रहे है ? श्रापका सर्षेण शोर सर्पात्मा




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