पुरुषार्थसिद्धयुपाय | Purusharthshidhuyupaye

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Purusharthshidhuyupaye  by पण्डितप्रवर श्री टोडरमल जी - Panditapravar Shri Todarmal Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जानकर मध्यस्थ होता है, वहु शिष्य हौ उपदेश का भविकल फल प्राप्त करता है मोक्षमार्य में निश्चमव्यवहार का, स्थान निर्धारित करने वाली गाथा प्रस्तुत करके टीकाकार पण्डित टोडरमल कहते हैं कि हमें पहले दोनों नयों को भले प्रकार जानना चाहिए, पश्चात्‌ उन्हें यधायोग्य अंगीकार करना चाहिये । किसी एक नय का पक्षपातो होकर हठाग्रही नहीं होना चाहिए । गाथा इस प्रकार है-- “जह जिरमयथं पवज्जह ता मा व्यवहार शिच्छाएमुप्रह । एके विरा छिज्जद तित्थं प्रणपेरपपुरण तच्च 111? यदि तू जिनमत में प्रवतंन करना चाहता है तो व्यवहार भौर निश्चय को मत छोड़ । यदि निश्चय का पक्षपातरों होकर व्यवहार को छोड़ेगा तो रत्नत्रय स्वरूप घमंतीर्थ का अभाव होगा । और यदि व्यवहार का पक्षपाती होकर निश्चय को छोड़ेगा तो शुद्धतत्त्व का भ्रनुमत् नही होगा ।” यह गाथा प्राचार्य भ्रमृतचन्द्र को भी अत्यन्त प्रिय थी । उन्होने भ्रात्मरूयातिमें भी इते उद्धत किया है । वे भ्रपनी टीकाश्रों में सहजरूप से कोई उद्ध रण देते ही नही है तथापि इस गाथा को उन्होंने उड्ध,त किया है । सम्यग्द्शन-जश्ञान-चा रित्रात्मक मोक्षमार्ग का झारम्भ करते हुए सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की प्र रणा देते हुए वे कहते हैं:-- “तत्रादौ सभ्यक्स्वं समुपाश्रणीयखिलम यत्नेन । तस्मिन्‌ सत्येव यतो भषति ज्ञानं चरित्रं चच ।।ः इन तीनों में सबप्रथम सम्पूर्ण प्रयत्नो से सम्यग्दशंन की उपासना करना चाहि, क्योकि उसके होने पर ही ज्ञान भरौर चारित्र सम्यक्‌ होते हैं।” उन्होंने सम्यग्दशंन, सम्यग्ज्ञान श्रौर सम्यक्चारित्र की परिभाषायें निश्चय-व्यवहा र की सधि पूर्वक दी हैं, जो इस प्रकार हैं-- “जोवा जोबादोनां तत्वार्थानां सदंब कतंव्यम्‌ । श्रद्धानं विपरीताभिनवेश विविक्तमात्म रूपं तत्‌ !। कर्तग्योऽध्यवस्षायः सदनेकातात्मकेषु तरवेषु । संशय विपय्ययानध्थवसायतिविक्तमात्मरूपं तत्‌ +} चारित्रं भवति यतः समस्त स्ताव्य योग परिहररणात्‌ । सकल कषाय विमुक्तः विशदभुद'सोनमारमशूपं तत्‌ ॥ १. अझनगार धर्मामृतः पण्डित ग्राशाघरजी प्रयम अध्याय पृष्ठ १८। २. पुरुषार्थ सिद्धयुणय छुम्द ८ (१५)




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