ब्रजभाषा-शब्दावली | Braj Bhaashaa Shabdaawali

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अम्बाप्रसाद सुमन - Ambaprasad Suman

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वासुदेवशरण अग्रवाल - Vasudeshran Agrawal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) ( ५ ) घॉटन--१४ (सं० घट्टन)- रस्सी या बर्त (वै० सं० वरत्रा) की रगड़ से हाथों में जो निशान पड़ जाते हैं वे घॉटन या घिटना कहाते हैं। ( ६ ) ज्वारा--फ (सं० युगल) - दो बैलों कौ जोड़ी जो.किसी जूए में जुती हुईं हो । (७ ) भडना--४१ लोहे आदि की बनी हुई किसी वस्तु में जब लोहे की कील एक विशेष दंग से जड़ी जाती है तब उस के लिए “मंडना' क्रिया प्रचलित है। यह अंग० '“रिवैट? के अर्थ में बहुत प्रचलित और महत्वपूर्ण शब्द है | ( ८ ) नरकटा--8 - चरस खींचनेवाले बैलों की जोड़ी जब कुएँ की नहँची में पहुँचती है, तब * वहाँ बैलों की गर्दन पर काफ़ी जोर पड़ता है अर्थात्‌ नार (गर्दन) कटने लगती है । उस जगह को नरकटा कहते हैं ( ६ ) परोहा--१३ (सं० प्रारोहक)-- चमड़े का बना हुआ एक खुला एक यैला-सा जिससे किसान सिंचाई के समय पानी को ऊँचे धरातलवाले खेत मे डालता है | (१०) पैर चलाना--२ ८ सिंचाई करने की एक क्रिया जिसमें किसान पुर, बर्त (वै० सं० बरजा) और बैलों द्वारा कुएँ से पानी निकालते हैं । (११) सुहागा--२५ (सं० सोमाग्यक) 5 लकड़ी का एक बड़ा और भारी तख्ता-सा जिससे जुते हुए, खेत की मिट्टी को चौरस किया जाता है। यह खेत की भमि को सौभाग्य या सौन्दर्य प्रदान करता है, इसीलिए इसका नाम 'खुहागा” है। ,खुरजा मे महर मेरठ में मेड) । (१२) सेहा और करार---३० (सं० सेध +क >सेहा; सं० कराल;> करार) > जुताई के समय खेत में गहरा गड़कर चलनेवाला हल करार और ऊपरी रुख में हलका चलनेवाला हल सेहा कहाता है | (१३) সা বা हस्नागा--२४ (सं ° हलप्र्रह; सं° हलवल्गा ) हल में जते हृए बेलों में बाई ओर के बैल की नाथ में एक लम्बी रस्सी वधी रहती है जिसे पकड़कर हलवाहा बैलों को हाँकता है। वह रस्सी हरपधा या हरबागा कहाती है। (१४) हर्स--३० [सं० हलीषा- हलि +ईपा = दल का डंडा) = लम्बा श्रौर मारी डंडा-सा जो हल में लगा रहता है। (बुलन्द शर में हलस) । ` ` भ्रकरण २ | खेत श्रौर.फसल की तैयारी , ০ (१५) अँयोला--१११ (सं० अग्रपोतलक) गन्ने का ऊपरी आगे का भाग जिस पर पत्तियाँ लगी रहती हैं | , सं ° श्रग्रपोतलक > श्रग्गश्रोलश्च > श्रगगोला >्रंगोला ) | (१६) खूँद--१६१ (सं० कुद्र >प्रा० खुद > हिं० खूँद)- गेहूँ, जौ, जई आदि के छोटे पौधे जब हाथ-सवा हाथ बढ़ जाते है, तव खद्‌ कहाते है । (१७) गूल--१०६ (सं० कुल्या)--आलू या शकरकन्द बोते समय खेत में जो छोटी-छोटी नालियाँ . और मेड बनाई जाती है, उन्दै मूल कहते है । (यास्क, निरुक्त कुल्याः > गूल) । (१८) तेखर--७४ (सं० त्रिकर) > असाढ़ी (रबी की फसल के लिए असाढ़ से क्वार तक जुतनेवाला खेत) में जब तीसरी बार जुताई की जाती है, तब उसे तेखर कहते हैं। जोत की ४ एकड़ धरती को संस्कृत में “লিনা ঘা त्रिसीत्या” कहते हैं । (१६) नौदा और पेड़ी--११३, ११४ (सं० नव + बृद्ध > नौदा)- नई बोई हुदै ईख की फसल नोदा कहाती है और दुबारा जब नौदा में,से ही जड़ें फ़ूटकर ईख़ हो जाती है तन उसे पेड़ी कहते है ।




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