न्यायदर्शनम | Nyayadarshnam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समिका ॥ ९ €. आधुनिक दर्शन अपने २ विषयों को छोड़ कर परस्पर एक दूसरे के विषय में हस्ताशेप करता है । अस्तु-हमें यहां दर्शनशास्त्र का आलोच्य विषय क्‍या है इस पर विचार करना है! दर्शनशास्खत्र का प्रथम आलोच्य विधय--जगस है। जिस समय भनुष्य को प्रथम श्ञान प्रस्क्टित होता उस समय जगत्‌ ही उस के ज्ञान मे प्रतिभात होता है । जितने दिनि जगत्‌ का नियत परिवर्तन मे नानारूप शक्ति या शक्तिमान्‌ कौ क्रिया देख कर मन अभिभूत रहत, जितने समय उन शक्तियो को असीम जानता-इस जगत्‌ को अनन्त अपीम कह कर, हमारा साम खसे धारणा नही कर सस्ता-जितने दिन जगत्‌ को असोम कर हम अपने ज्ञान में उते प्रवेश नहीं करा सकते उतने दिनि तक्ष “ दृशेनशाख का आरम्भ होता नहीं! असोस और ससोस फी सीसा का मिथोरण करना ही ज्ञान! का उद्देश्य है। ज्ञान राज्य की सीमा अतीत कर ज्ञानातीत का राज्य आरम्भ होता है। ज्ञान इस ज्ञानातीत के राज्यम प्रमाण मीर यक्ति অল से कभों नहों जा सकता । उस राज्य में जाने के लिये लपाय कभी स्थिर नहीं कर सकता । दर्शन, केघल ज्ञान और झानातीत के मध्य में सीमा कपा है, यह निधारय कर सकता है। किन्तु ज्ञान के क्रम विकाश के साथ चान की सीमा करमशः विस्तीशं होने लगता है, झानातीत का राज्य-अझृषय र्य को जीत कर दशन, क्रमशः ज्ञान विस्तार करता है । खान को सोमा चाहे जितनी विस्वृतष्टो उसके पार में असीम का राज्य रहेहीगा। ज्ञानको परिधि का पू् विस्तार होने ही पर दश्शन शास्त्र शेष सोमा में उपनीत होताहै-ठस के परे दशन को झागे चलने की समता नहीं । ठषके बाद ब्रक्मजझ्ान का प्रयोजन होता है! यह ज्ञान! या ' आन्तरप्रत्यक्' सूल सटय उपलब्धि का शेष उपाय है-यही दर्शन का शेष सिद्दान्त है। और इसी कारण “दशेन” नास को साथकता होती है। इस बात को यहां लिखने की विशेष आवश्यकता नहों । सनुष्य पहिले सम्पूणो जगत्‌ को ज्ञानकों सोमासें लाताहै। उस समय दशेन का आरम्भ होताहे | ठस समय हस ससीस जगत्‌ के मच्यमें असी मका या ज्ञाना- জীব ছি राज्य का आरमभ्भह्टोता, कहां से इसका अनुसन्धान आरम्भ हो ताहि ? लगत्‌ के ज्ञानकी सोभा का पर है? इत्यादि को निश्चय करने कते लिये 'दशन' आलोचना में प्रदत्त होताहै। कारण की “अनुसन्धानवृत्ति' मनुष्य क्षौ अत्यन्त रे




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