सुदर्शनोदय काव्य | Surdarshanuday Kavya(1966)ac.5885

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Surdarshanuday Kavya(1966)ac.5885 by आचार्य ज्ञानसागर -Acharya Gyansagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) १,३३ पलछाशिता किशुक एवं यत्र द्वि रेफबर्गें मधुपत्वमत्र । विरोधिता पञ्जर एवं भाति निरौष्ठयकाव्येष्चपवादिता तु ॥३॥ २,२ द्विजिहवतातीतगुणोऽप्यहीनः किलानकोऽप्येष पुनः प्रबीणः । विचारवानप्यविरुद्धवृत्तिम दो ज्यितों दानमयप्रवृत्तिः |४॥ २,६. कापीब वापी सरसा सुचृत्ता मुद्र व शाटीव गणकरसत्ता | विधो: कछा वा तिथिसत्कृतीद्धालडारपृ्णो कत्रितिवः सिद्धा ॥५!। ३,२६ द्रतमाप्य रुदज्नथाम्बया पय आरात्स्तनयोस्तु पाथ्रितः । शनकेः समितोडपि तन्द्रित ঘন न शेते पुनरेष शायितः ॥३॥ ३,३२८ अह्ो किलाश्लेषि भनोरमायां त्वयाउनुरूपेणननोरमसायाम्‌ । সি ক রি ক ३ हि जहासि मत्तोऽपि न किन्तु मायां चिद्रति मेऽत्यथमकिन्नु मायाम्‌ ।७ ६,५२ भाग्यतस्तमधीयानो विपयाननुयाति य. । चिन्तामणि क्िपव्येष काकोद्ुयनहतवे ।८॥ यहां क्रमश: (१) रूपक, यमक ক্সীহ श्नुप्रास (२) पूर्णोपमा (३) परिसंख्या (४ विरोधाभास (५) श्लेपोपमा (5) स्वभावोक्ति (७, यमक ओर (८) निदेशना अल हारों का चमत्कार द्रष्टव्य हैं। काठय के शरीर का निर्माण शब्द और अथ से होता है। शब्दाल द्वार शब्द को और अर्थालझ्ार अथ को भूषित करते हैं । प्रस्तुत काव्य में दोना प्रकार के अछड्भार आदि से अन्त तक विद्यमान हैं | काव्य की श्रात्मा रस होता है जिसे यण अलकृत करते हैं । प्रस्तुत काव्य में शान्त्र रस प्रधान है जो प्रसाद गण से विभूषित है। नेषध और धमंशर्माम्युद्य की भांति इसमें वेदर्भी रीति है| निष्कर्ष यह कि एक सत्काव्य में जो विशेषतराए' होनी चाहिये वें सब इस में हैं ।




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