कर्तव्य पथ-प्रदर्शन | Kartvya Path Pradarshan

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Kartvya Path Pradarshan by आचार्य ज्ञानसागर -Acharya Gyansagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ६ ] सिवाय दूसरी पुस्तकों को पटना स्था बुरी बात है, परन्तु यह उनक्रा समभन। ठीक नहीं क्योंकि सममदार के लिये तो बुराइयों से बचना एवं भलाई की ओर बढ़ना यह एक ही सम्प्रदायिक होना चाहिये। अतः जिन पुस्तकों के पढने से हमारे मन पर बुरा असर पड़ता हो जिनमें असली उद्ण्डताएणं अह'कारादि दुगुणों को अ कुरित करने वाली बातें अं कित हों ऐसी पुस्तकों से अवश्य दूर रहना चाहिये। पुस्तकों से ही नहीं बल्कि ऐसे तो चातावरण से भी हर समय बचते रहना ही चाहिये। क्योंकि भनुष्य के हृदय में भले ओर बुरे दोनों ही तरह के संस्कार हुआ करते हैं जोकि समय ओर कारण को पाकर उदित हो जाया करते हैं। व्यापार करते समय मनुष्य का मन इतना कठोर हो जाता है कि वह किसी गरीब को भी एक पैसे की रियायत नहीं करता परन्तु, भोजन करने के समय में कोई भूखा अपाहिज आ खड़ा हो तो उसे कट ही दो रोटी दे देता है । मतलव यही कि उस २ स्थान का वातावरण भी उस २- प्रकार का होता है अतः मनुष्य का मन भी वहाँ पर उसी रूप में परिणमन कर जाया करता है । आप जव सिनेमा हाल मेँ जावेंगे तो आप का दिल वहाँ की चहल पहल से देखने में लालायित होगा परन्तु जब आप चल कर श्री भगवान के भन्दिर मे जावेगें तो वहाँ यथाशक्ति नमस्कार मन्त्र का जाप देना और मजन। करना लेसे कार्मों में आप का मन अवबृत होगा। हो यह वात दूसरी है कि अच्छे वातावरण में रहने का मौका इस ढुनियॉदारी के मनुष्य को बहुत कम मिलता है इसका अधिकॉरा समय तो बुरे वातावरण में ही वीतता है अतः अच्छे विचार प्रयास करने पर भी कठिनता से




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