गीतिकाव्य का विकास | Geetikabya Ka Vikash
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
72 MB
कुल पष्ठ :
531
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२ गीतिकाबज्य का विकास
चतुष्पद, घदपद आदि ग्रकारों का भी संकेत किया गया है | साथ ही यह भी
स्मरण रखना चाहिए कि वैदिक मन्त्र गेय हैं अर्थात् वे गीत-बद्ध दै, मन्त्रौ
के आरम्म में उनके स्वरों का भी निदेश पाया जाता है । बेदज्ञ के लिए मन्त्रो
मे श्राए छन्दो श्रौर उनके स्वरूपो पे परिचित होना नितान्त आवश्यक ही
नहीं, अनिवाय भी है ।
वेद मन्त्रद्वश् कवियों के गीत हैं । इन आत्मज्ञ कवियों के पूवरचित
लोक-गीत ओर लोक-कवियों की रचनाएँ, जो मौखिक रूप में जनता के बीच
अवश्य ही चलती रही होंगी, आज उपलब्ध नहीं हैं । किन्तु इस अनुमित
सत्य के प्रति संदेह करने का कोई कारण नहीं है कि मानव स्वानुमूत सुख-
दुःख का प्रकाशन वाणी के माध्यम से अपनी मुग्धावस्था में अवश्य करता
रहा होगा | यदि कोकिल, चातक आदि के गान और मयूरादि का उल्लासपूर्य
नृत्य सहज-सिद्ध है तो उस मानव का सुख-दुश्खात्मक गान ओर दृत्य सहज-
सिद्ध क्यों नहीं होगा, जो सृष्टि का सर्वाधिक भावुक प्राणी है । जिस मानव ने
धीरे-घीरे स्वरों के स्वरूप ओर मिन्न-भिन्न प्राशियों की वाणी में उनका अब-
स्थान तक खोज निकाला, वह अवश्य ही प्रकृत्या मूलतः गायक रहा होगा।
बैदिक काल में भी गान के दो प्रमुख प्रकार पाये जाते हैं, (क) ग्राम गान,
ओर (ख) शरण्य गान | यह ग्राम गान लोक-गींत का ही पूवरूप है | यों
तो ऋक्, यजुः के मन्त्र मी छुन्द : प्रधान हैं, जेसा कि पाणिनीय शिक्षा
कहती है कि छन्द वेद के चरण हैं! ( इनके बिना वह चल ही नहीं सकता ),
किन्तु संगीत का पूर्ण विकास सामवेद में ही दिखाई पड़ता है, जैसा कि
१. गायत्री त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप्पडः क्या सह
बृहत्युष्णिहा ककुप्सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥
दविपदा याश्चुष्पदास्तिपदा याश्च षट्पदाः ।
विच्छन्दा याश्च सच्छन्दाः सूचिभिः शम्यन्तु त्वा ॥
~ शु° यजु° उत्तरा, अ्रध्याय २३, मं० ३३--३४ ।
२, षड्जो वेदे शिखरिडः स्यादृषमः स्यादजामुसे !
गावा रम्भन्ति गान्धारं क्रौञ्चाश्चैव तु मध्यमम् ॥
कोकिलः पञ्चमो ज्ञेयो निषादं तु वदेद्गजः ।
अश्वश्च वैवतो जेयः, स्वराः सप्त विधीयते ॥ --याज्ञवल्क्य-शिक्ता
३. चन्दः पादौ तु वेदस्य “* ॥ --पाणिनीय शिक्षा, कोक ४।
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