जीवन -ज्योति | Jivan - Jyoti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जीवच-ज्योति १२१ सौन्दर्य, अनन्त प्रेम, अनन्त भलाई तथा पवित्रता की ओर बढता चला जा रहा है। वास्तव में वह किसी श्रन्य वस्तु तथा सत्ता की तलाश नही कर रहा। वह तो श्रपने वत्तेमान रूप मे अपने ही स्वरूप (आत्मा) की ओर धावित हो रहा है, बाहरी दबाव के अ्रधीन नही । बल्कि भ्रन्त प्रेरणा से, निज स्वभाव के वश्ञ मे ऐसा करने को बाध्य है । और यही तो व्यापक मानव धर्म है जो मानव जाति के लिए एक ही है। मत (अनुष्ठान, क्रियाएँ, श्राचार, सिद्धान्त) अनेक है। मत मानव जाति के भीतर नाना प्रकार के भेद तथा विच्छेद उत्पन्न करते है किन्तु मानव धर्म हमे मिलाता एवं अनन्त, असीम, श्रद्वत तथा अविनश्वर सुल्य-जगत्‌ (सत्य, शिव, सुन्दर) की ओर खीचता हुआ जीवन को आनन्दमय बनाता है । धर्ममय जीवन द्वारा ही इस पृथ्वी पर स्वर्ग का निर्माण होता है। क्योकि “यो वे भूमा तत्‌ सुखस्‌ नाल्‍पे सुखमस्ति भूम॑व सुखम्‌” । अनन्त में ही सुख है, अल्प मे नही । अनन्त ही सुखप्रद है। तद्विपरीत अधम्म॑ (अनन्त की ओर जीवन प्रगति का रुद्ध हो जाना) दुख उत्पन्न करता हुआ इस पाथिव जीवन को ही नरक बना देता है। स्वगे तथा नरक स्थान विशेष नही हैं । यह तो हमारी मानसिक दशाओ के ही वास्तव भेद हैं जो धर्म एवं धर्म के अनिवाय भावी फल है 1 हमारा स्वभाव ही हमारा स्वधर्म है जिससे हम भाग नही सकते । हमारे कर्म (मानसिक, वाचक, कायक) अपना फूल आप लाते हैं । और जिस प्रकार अपने आपसे भागना सम्भव नही है, इसी प्रकार अपने कर्मो से भागता भी श्रसम्भव




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