भस्मावृत चिन्गारी | Bhasmavrit Chingari

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Bhasmavrit Chingari by यशपाल - Yashpal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धर मस्मावृत्त च्िग्यारी का शिखिर सप्राण-सा हो उसे अपनी ओर आह्वान कर रहा है । इस चित्र की भाव-गरिमा से मैं अवाक रह गया । चित्र क्या था कलाकार की कूँची से उसके जीवन की कहानी और उसके त्याग की महस्वाकांदा कला के प्रति उसका सगवे आत्म-समपंण । मैं अभिभूत रह गया उस महान उद्देश्य से परे लघु जीवन की बात क्या ? फिर भी शंकालु मस्तिष्क सें प्रश्न उठदी आता---कला की शक्ति जीवन में किस प्रकार चरितार्थ हो ? कलाकार ने अपना उत्तर रेखा के स्तरों में शिख चिवपट स्थिर कर दिया था । प्रश्न करने पर उसने कहा-- ँपेरे ऑंगन में एक दीपक जलता हैं । उस दीपक का आलोक बहुन दूर से भी दिखाई पढ़ता हे ओर समीप से भी । दीपक की लौ के समीप आते जाने से प्रकाश को उज्ज्वलता मिलती है और ध्ष्टि को सुस्पष्ट॒ता । परन्तु यह दीपक को श्राप कर लेना नहीं हैं । प्रकाश के इस केन्द्र में हूं झवल अध्े ।....जो तेल और बत्ती को जलाती है । दीपक की लो प्रकाश की श्रोर देखनेवाद् पथिकों की चिन्ता नहीं करती श्रोर दीपक जलता रहने के लिए तेल और बत्ती का जलते रहना आवश्यक है । कलाकार का शरीर दारिद्य ओर अवसाद से चीख होता गया। परन्तु उसके नघ्रों की प्रखरता बढ़ती गई । वह अपनी साधना में रत था । जितना ही गहरा मूल्य वह अपनी इस झाराघना के लिए अदा ऋर रहा था उसी अनुपात से उसकी निष्टा बढ़ती जा रही थी । जद शरद तर बहुत सुबह उठने का अभ्यास मुझे नहीं हैं विशेषकर माघ की सर्दी में । परन्तु पिछले दिन धकावट अधिक हो जाने के कारण समय से एक घंटे पूव सो गया था इसलिए उठा भी कुछ पहले । समय होने सं बरामद में सा सामने फुववाढ़ी की ओर देख रहा था माली कुछ करना भी ह या नहीं ।




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