संस्कृति के चार अध्याय | Sanskriti Ke Char Adhyay

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Sanskriti Ke Char Adhyay  by रामधारी सिंह दिनकर - Ramdhari Singh Dinkar

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रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।

'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।

सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया ग

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) उनका कुछ-स-कुछ प्रभाव सो पड़ा, किन्तु उससे यहाँ की बुनियादी जनसंख्या के स्वरूप में कोई बड़ा परिवर्सन नहीं आया। लेकिन, फिर मी, याद रखना चाहिए कि ऐसे कुछ परिवत्तन भारत में भी हुए हे। सीचियन और हन लोग तथा उनके बाद भारत आनेबाली कुछ अन्य जातियों के लोग यहाँ आकर राजपूतों की शाखाओं में शामिस हो गये और यह दावा करने रूगे कि हम भी प्राचोत भारतवासियों की संतान हैं। बहुत ` दिनों तक बाहरी दुनिया से अलूग रहने के कारण, भारत का स्वभाव भी और देज्ञों से भिन्न हो गया। हम ऐसी जाति बन गये, जो अपने आप में घिरी रहतो है। हमारे भीतर कुछ ऐसे रियाजों का चलन हो गया, जिन्हें बाहुर के लोग थ तो जानते हे, न समझ ही पाते हे। जाति-प्रया के असंक्य रूप भारत के इसी विचित्र स्वभाव के उदाहरण हे । किसी भी दूसरे देश के लोग यह नहीं जानते कि छुआछुत क्या चीज है तथा दूसरों के साथ खाने-पीने सा बिवाह करने मे, जाति को लेकर, किसी को श्या उख होना चाहिए । इन सब बातों को लुकर हसारो दृष्टि संकुछित हो गयी । गाज भी भारतवासिर्यो को इूसरे रोगों से खुल कर सिलने भें कठिनाई महसूस होती है। यही नहीं, जब भारंतवासो भारत से बाहर जाते हे, तब बां भौ एक जाति के रोग दूसरी जाति के रोगों से अलग रहना चाहते हे । हमसे से बहुत रोग इन सारी बातों को स्वयंसिद्ध मानते हे और हम यहु समस ही महीं पाते कि इन बातों से दूसरे वेशवालों को कितना आदचर्य होता है, उनकी भावना को कंसी ठेस पहुंचती है । भारत में दोनों बातें एक साथ बढ़ीं। एक ओर तो विचारों और सिद्धांतों में हमने अधिक-से-अधिक उदार और सहिष्णु होने का दावा किया! दूसरी मोर, हमरे सामा- जिक आचार अत्यन्त संकीणं होते गये । यह फटा हुआ व्यक्तित्व, सिद्धांत और आचरण का यह विरोध, आज तक हमारे साथ हे और आज भी हम उसके विरुद्ध संधर्ण कर रहे है। कितनो विजधित्र बात है कि अपनी दृष्टि को संकीर्णता, आदतों और रिवाजों की कसजोरियों फो हम यह कह कर नजर-अन्दाज कर देना घाहते हे कि हमारे पूर्णज बड़े लोग थे और उनके बड़े-बड़े विचार हमें विरासत में सिले हे। लेकिन, पूर्वजों से मिले हुए शान एवं हमारे आचरण में भारी विरोध है और जब तक हम इस बिरोध की स्थिति को दूर नहीं करते, हमारा व्यक्तित्व फटा का फटा रह जायगा। জিন विसों जीवन अपेक्षाकृत अधिक गतिहोल था, उन दिसों सिद्धास्त और भारम का यह विरोध उतना उप्र नहीं दिखायी देता था। छोकिन, ज्यों-ज्यों राजनैतिक और जआधिक परिवत्तेनों की रफ्तार तेज होती गयी, इस बिरोध की उप्रता भी अधिक-से-अधिक प्रत्यक होती आयौ है । माऊ तो हम आनभ्िक घुथ के दरवाजे पर खड़े हैं। इस युग की प्रिस्थितियाँ इतनी प्रबल हं कि हमे मयने इस आन्तरिक विरोध का सभन करना हो पड़ेगा । और इस काम में हम कहीं असछछ हो गये तो यह असफलता सारे राष्ट्र की पराजय होगी और हम उन अच्छाइप्रॉऑआडी लो बैठेंगे, जन पर हम आज तक अभिमान करते आये है ।




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