जैन आगम साहित्य मनन और मीमासा | Jain Agam Sahitya Manan Aur Mimasa

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Jain Agam Sahitya Manan Aur Mimasa by देवेन्द्र मुनि शास्त्री - Devendra Muni Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) म तरस्य दृष्टि से चिन्तन करता हूँ तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि दोनों ही परम्पराओं के आगम प्रन्यों में मौलिक दृष्टि से कोई विशेष अन्तर नही है । दोनों ही ग्रन्थो में तत्वविचार, जीवविचार, कर्मविचार, लोकविचार, ज्ञान-विचार समान है । दार्शनिका दृष्टि से कोई अन्तर नही है। आचार परम्परा ष्टि से मी चिन्तन करें तो वस्त्र के उपयोग के सम्बन्ध में कुछ मतभेद होने पर भी विशेष अन्तर नहीं रहा। दिगम्बर परम्पशा के ग्रन्थों में नग्तत्व पर अत्यधिक बल दिया गया किन्तु व्यवहार भे नग्न मुनि की संख्या बहुत ही कम रही और दिगम्बर আন্ত জাতি की संख्या उनसे बहुत अधिक रही। श्वेताम्बर आगम साहित्य में जिनकल्प को स्थविरकल्प से अधिक महत्त्व दिया गया किन्तु व्यावह्मरिक हृष्टि से आय॑ जम्बू के पश्चात्‌ जिनकतप का तिपेध कर दिया गया । दिगम्बर परम्परा में स्त्री के निर्वाण का निषेध किया है किन्तु दिगम्वर परम्परा मान्य पद्खण्डागम में मनुष्य-स्त्रियों के गुणस्थात के सम्बन्ध में चित्तन करते हुए लिखा है कि “मनुष्य-स्त्रियाँ सम्यग्मिध्याहप्टि, असंयतसम्यगहष्टि, संयतासंयत और सयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं 1१९६ इसमें 'संजद' शब्द को सम्पादकों ने टिप्पण में दिया है, जिसका सारांश यह है कि मनुष्य स्त्री को 'संयत' गुणस्थान हो सकता है और संयत गुणस्थान होते पर स्त्री मोक्ष में जा सकती है। प्रस्तुत प्रश्न को लेकर दिगम्वर समाज में प्रबल विरोध का बाता- वरण समुत्पन्न हुआ तब ग्रन्थ के सम्पादक पं० हीरालालजी जैन आदि ने पुनः उसका स्पष्टीकरण 'पद्खण्डागम के तृतीय भाग की प्रस्तावना' में किया किन्तु जब विज्ञों ने शूडविद्री (कर्णाठक) में पद्खण्डागम की मूल प्रति देखी तो उसमें भी संजद' शब्द भिला है । वट्टकेरस्वामि विरचित मुलाचार में आयिकाओं के आचार का विश्लेपण करते हुए कहा है जो साधु अथवा आयिका इस प्रकार आचरण करते हैं थे जगत में पूजा, यश व सुख को पाकर मोक्ष को पाते हैं ।१७ इसमें भी आयिकाओं के मोक्ष में जाने का उल्लेख है। किन्तु बाद में टीकाकारों ने अपनी दीकाओं मे स्त्री निर्वाण का निर्षधध किया है। आचार के जितने भी नियम हैं उनमें महत्त्वपूर्ण नियम उद्दिष्ट त्याग का है जिसका दोनों ही परम्पराओं मे समान रूप से महत्त्व रहा है । १९ सम्मामिच्छाइटि असंजदसम्भाइट्टि संजदासंजद (अन्न संजद इति पाठशेयः प्रतिभाति)--ट्वाणे णियमा पज्जत्तियाओ। पट्‌्खण्डागम, भाग १, सूत्र ६३ पृ० ३३२, प्रका०--सेठ लक्ष्मीचन्द शितावराय, जैन साहित्योद्धारक फंड, कार्यालय अमरावती, (बरार) सन्‌ १६३६ १७ एवं विघाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जाओं। ते जमपुज्जं कित्ति सुदं च लद.ण सिर्क्षंति 11 -भूलाचार ४/।१९६, प° १६८




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