अनेकांत वर्ष -22( अक्टूबर -दिसम्बर : 1969) | Anekant Varsh- 47 (Oct-Dec 94)

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Anekant Varsh- 47 (Oct-Dec 94) by आचार्य जुगल किशोर मुख़्तार - Acharya Jugal Kishore Muktar

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जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।

पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनेकान्त^१५्‌ 'कुंदकुंद शब्द कोश (विवेक विहार) सुय केवली पृ ३४४ । भणिय षु. २३५ । इक्क पृ. ५६! पित्तव्व प ११२ । हविज्ज पृ. ३५० । गिण्डइ पु १०७। कह पु ८७। मुयड पृ. २५२ । जाण पृ. १२६ । करिज्ज पृ. ८५। भणिज्जं प २३०। पुग्गल घ. २२५ । जाणिऊण पृ. १२६ । णाऊण पृ १४६ ! चुक्किज्ज प १२३ आदि) स्मरण रहे कि कद कुद भारती के सम्पादनो मे उक्त जातीय शब्दो का बहिष्कार कर दिया गया है | ओर हम उक्त शब्द रूपो ओर आगमगत सभी शब्द रूपो को सही मान रहे है तब हम पर कोप क्यो? मीठा मीठा गप कडुआ कडुआ थू : सपादक कदकद भारती ने डॉ सरजू प्रसाद के 'प्राकृत विमर्ष' ग्रन्थ से 'मुन्नुडि पृ. ६ पर एकं उदाहरण दिया है जिसमे जैन शौरसेनी की पुष्टिदहै। पर सपादक की मन चीती न होने से अब वे उसे ठीक नही मान रहे। प्राकृत विमर्ष मे निम्न सदेश भी है। उन पर भी विचार होना चाहिए । १ “शौरसेनी ग्रन्थ की स्वतत्र रचनाएँ तो उपलब्ध नही होती परन्तु जैन शौरसेनी मे दिगम्बर सप्रदाय के ग्रन्थ उपलब्ध होते है। कुदकुद रचित 'पवयणसार' जैन--शौरसेनी की प्रारम्भिक प्रसिद्ध रचना है | कुदकुदाचार्य की प्राय सभी रचनाएँ इसी भाषा मे है |” प्राकृत विमर्श पृ ४३ २ “महाराष्ट्री स्टैण्डर्ड प्राकृत मानी जाती है -------प्राकृत वैयाकरणो ने महाराष्ट्री को ही मूलमान कर विस्तार से वर्णन किया है ओर अन्य प्राकृतो को उसी प्राकृत के सदृष्य बताकर क॒छ भिन्‍न बिशेषताएँ अलग अलग दे दी है।* वही पृ. ३७ ३ शौरसेनी प्राकृत के स्वतत्र ग्रन्थ अभी (सन्‌ १६५३) तक उपलब्ध नही हो सके है वही पृ. ४१ ४ “महाराष्ट्री प्राकृत को ही वैयाकरणो ने प्रधान भाषा मानकर उसके आधार पर अन्य प्राकृतों का वर्णन किया है।' वही पृ. ७५। ५ “उस काल मे महाराष्ट्री स्टैण्डर्ड प्राकृत थी | वही पृ. ७५ हम यह भी स्मरण करा दे कि अब शौरसेनी की ओर करवट लेने वाले और 'शोरसेनी व्याकरण तथा -कदकद शब्दकोशः मे विविध भाषाओ के शब्द रूपो का पोषण करने वाले ड. प्रेम सुमन जेन हमे दिनांक ३.४.८८ के पत्र मे भी तत्कालीन भाषाओ के प्रयोग होने की स्वीकृति पहिले ही दे चुके है । तथाहि- “कोई भी प्रायीन प्राकृत ग्रन्थ आगम, किसी व्याकरण के नियमो से बी भाषा मात्र को अनुगमन नही करता । उसमे तत्कालीन विभिन्न भाषाओं, बोलियो के प्रयोग सुरक्षित मिलते हैँ ˆ--एक ही ग्रन्थ मे कई प्रयोग प्राकृत बहुलता को दशति है । अत




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