मनोंरंजन पुस्तकमाला | Manoranjan Pustakamala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १० ) नर-शरीर मे रत्त वही जो पर दुख साथी। खात पियत अरु खसंत श्वान मुक श्रो भाथी ॥ -भारतेद | केवल साथ ही का अवलंबंन करके यदि हमने पंर दःख से अपने अंतःकरण को पसीजने न दिया तो संसार मे होनेवाले कितने ही शुद्ध और सात्विक सुखों को हम॑ तिलांजलि दे दंगे दूसरे का देख जिनके हृदय द्ववी भूत नहीं होते उन्हें सुख मिलना असंभव है | हमं जो संकट प्राप्त होतेह वे सर्वदा सश्च संकट नहीं होते, बल्कि उन्हीं में हमारा लाभ नियत होता है। जिस आपत्ति का सच्चा मर्म समझ में न आवे उसके अविचार के कारण दुःख न मान कर उसके अंतर्गत होनेवाले खुल और लाभ की ओर ध्यान अवश्य देना चाहिए। “आत्मा को एक स्थान में मजबूती से जड़ देने के लिये छुल्न और दुःख दो कीलं हैं|? दुःख किसी भावी खंकट का सूचक है। यदि ऐसा न होता तो हमारे लिये जीवित रहना ही कठिन हो जाता, और हमारे पास के खुख के उपकरण हमारे ही नाश के कारण बन जाते । ` जिन लोगो ने भली भाँति विचार नहीं किया है उनकी यह समझ है कि हमारे शरीर का भीतरी साग नाज्ञुक है इससे हम शरीरधारी जीवों को खुल और दुःख का परिणाम बहुत शीघ्र मिलता है परंतु यह बात सत्य नहीं है। हमारे शरीर की ऊपरी त्वचा ही सचमुच बहुत नाजुक और कोमल है और




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