जय - वाणी | Jay - Vani
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
546
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१५
रामी ! भे सास्य, प्रस्ह्तशा फाज फ,
तीन भवन रो पामजो सज के
शील अखंडित पालजो ॥
नेमीश्वर फे दीक्षा लेते ही राजुल के जीवनाकाश मे शोक फे भेष छा
जांते हैं। उसके मनमें भगवान् नेमि फे দুহান ক্ষী বল ভক্ষব্তা जांग्रत हो उठती
है ओर बह उत्तर तक अपना उपालंस भेजने तथा उनका पत्र लाने के लिए, देखिए-
फ़िस प्रकार अपनी सखियों को फुसलाती ऐ--
४ तरसत अखियां हुई द्रुम-पश्ियां !
जाय मिलो पिवसू, सखियां !
यदुनाथजी रे हाथ री ल्याबे कोई पतियां,
नेमनाथजी-दी नानाथजी ॥
जिणकृ' श्रोलंभो तो जाय कणो,
थे तज्ञ राजुल करम भये जत्तिया ९
जाकू' दूंगी जराबरो गजे,
कानन क्रूः चूनी मोतिया ॥
अंगुरी कू मदड़ी, ओढण कू' फमड़ी,
पेरण चरू रेशमी धोतिया ।
महल अटारी, भए कटारी,
चंद - किरण तनू दाभफतिया 11275
जब राजुल की माता उसे आश्वस्त करती है तो वह उत्तर मे जो कुछ
कहती है वह उतरी टट तेसि-निप्ठा एवं सहनीय शील का द्योतक है। कवि की
वाणी मे राजुल की उक्ति सुनिए-
“किन के शरणे जाऊं, नेम विना किनके शरणे जाडं ।
इण जग सांय नदी कोई मेरो, 'ताकि मैज' कहाडं নল০ |)
मात पिता सुण सखी सहेल्यां, लिख कर दूत पठाऊं ।
किण गुन्हे मोय तजी पियाजी सै मी संदेशो पाड ॥ नेस० ॥
मे तो पल एक संग न छोड़ू', छोड कहो किहां जाऊं ।
अब दुक घीरप-रथ हांको, चालो में सी थांरे लार आऊं ॥ नेम० ॥?
?. जयवाणी ए० सं० २२६-२ २० (हाल-२ २)
२. जयवाणी प०सं० २३१ (ढाल-२१)
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