आत्मावबोध | Aatmavbodh

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Aatmavbodh by उदयलाल काशलीवाल - Udaylal Kashliwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आत्मायबोधप ७ ~, अथांत जिस भाँति सूर्योदय उसकी: प्रभासे ही दिखाई पड़ता ~~ शपथ खानेसे नहीं, उत्ती मौति आत्मज्ञान--आत्मानुमव-भी अपने गुर्णों- से ही होता है--शपथ खानेसे नहीं होता । इस कारण अधिक --बोरने की आवश्यकता नहीं 1 इस गाथामें आचार्यने यह बात बतलाई है कि, 'आत्मानुभव कितना सरल या सहज है। जिस भौति दिन निकल ख़कने पर आस-पास सूर्यके उद्यको देखना सुगम है ओर सूर्योद्यको देश कर आकाशमें सूर्यका देखना ओर भी सुम हे) उरी मति अपने आत्ममं प्रगट होनेदाले शानादि गु्णोको देख फर ओर सके वाद उनके विस्तारको देख कर फिर ओ अपने इृद््‌यांकाशमें देखता है, उसे शीघ्र ही आत्मन्साक्षात्कार या उसका प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है | यही शुद्ध सम्यक्‍्त्व है । परन्तु जो मनुष्य पदार्थों ओर शुमाझुम व्यवहारोंमें ही फंसे हुए हैं--उनमें रेच-पच गये हैं-उनके लिए दिन निकल सका हो तब भी उसका कुछ उपयोग नहीं होता और दिन पर दिन बीतते जाते हैं । उस्ती माति कुछ ऐसे बहिरात्मबुद्धि-- शरीर, स्री-पुत्र, धन-दीलतकी ही आत्मा समझनिवाले--हैं (कि वे अपने भीतर प्रकाशित ज्ञानादि गुणोकी प्रमाको मी, उस ओर उपयोग न बेनेके कारण नहीं जान पाते; ओर उनका एकके बाद एक जन्म बीतता ही जाता है । शस कारण जिस भोति हम थोड़ी ইউ सिव्‌ पद्यौ भौर उनके अनेक प्रकारके व्यवहारोंकी ओरसे दृष्टि हठा कर दिनकी प्रमाकों देखते है, किर सूथकी प्रमाको देखते हैं और उसे देख कर वाद्‌ पूर्य देखते है उस्ती भृति अन्तरि द्वारा देखने पर जान पटेगा क .जिन ज्ञानादि रुणो प्रभात जो जीव और उनके व्यवदारं जाने जाते हैं उन्हीं गुणोंमें उपयोग लगानैसे-भरा विशेष स्थिर रहने पर-अथौत्‌ ज्ञानादे गुणोंका प्रकाश देस कर--अन्तरात्मा बन कर--जहोँसे ये गुण उर्लेन्न होते हैं, उस उपयोग ठगानेसे হীন हि सकेगेजौर फिर यह ৪ এ




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