जलसाघर | Jalsaghar

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Jalsaghar by ताराशंकर वंद्योपाध्याय - Tarashankar Vandhyopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मंजरी घोली--वाह, मैना तो बोल रही है खूब 1 तो हां, दुल्हन, क्‍यों लही पसन्द हुई, कुछ जान सकी हो ? गोपिनी ने फिर उसी विकोटी काटने के ही स्वर में कहा--मैं रसकली लगाना जौ नही जानती, इयी से । मंजरी सब कुछ समझ गयी । इस बार हँस कर आशएचर्य की मुद्रा में गाल पर हाथ रख कर बोली--हाय री अम्मा, इसी से वया ? तो मुझ से “रसकली लगाना सीखोगी दुल्हन ? --भिखाओगी ? देखो, ठीक तुम्हारी ही तरह होना चाहिए । --हाँ, सिखाऊँगी। लेकित धीरज रय सकोगी तो ? “हाँ, रख सकूँगी। तुम्हारे पास समय कहाँ से होगा ? मैं कहती हुँ, रसिको प्ते तुम्हे छुट्टी मिलेगी तब्र तो ? “मेरे रसिकों की बात छोड़ो, वे तो अप्षमय भी आ कर समय दे सकते हैं पर तुम्हारा रसिक तो एक क्षण भी तुम्हें नही छोड़, पाता, देख रही हैं ।--मजरी ने कहा । --वह तो दो दिन की बात है, अभी तो नरम-नरम सोआ-पालक का न री, बाद में बूढा वैल ठीक जगह ही जा कर चरेगा, डर को बात नही है। मंजरी ने थोडा झलक कर तीखेपन से कहा--तो भाई, वूढ़ें बैल को बांध रखो, बस, जिस के पास पगहा नही हो तो उसे बैल पालने का शौक क्यो? गोपिनीभी कुला कर इस वार वोली--धोडा रहने प्रर क्या चावुक की कमी होती है, री, नही । जव बैल पाल रखा है, तव पहा भया नही सुधा ट मे कटती हूं कि सादी तो है, आंचल से वाँधूमौ 1 “-अगर तोड़ कर भाग जाये तो ? मजरी ने हंस कर कहा । “इस्स, उस के बूते की बात नही ! गोपिनी बोली । मजरी ने कहा--देखो । गोपिनो ने उसो दाम्भिक स्वर में कहा--तब नहीं होगा तो फड़े “आँचल को गले में डाल कर झूल पड़ेगी, लेकिन अभी तो ज़िन्दे ही उसे गढ़े “में ढकेल नहीं सकती। रसकली €




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