भगवान महावीर की पूर्वकालीन जैन परम्परा धर्म और दर्शन | Bhagawan Mahaveer Ki Purvakalin Jain Parampara Dharm Aur Darshan

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Bhagawan Mahaveer Ki Purvakalin Jain Parampara Dharm Aur Darshan by श्री पुष्कर मुनि जी महाराज - Shri Pushkar Muni Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ ) अशोक के शिलालेखों मे मौ निग दाब्द का उल्तेख प्राप्त होता है 1२४ भग- यान महावीर के पश्चात्‌ आठ गणधरों या आचार्यो तक निग्र न्य' शव्द मुख्य रूप से रहा ६।२६ दिक ग्रन्योमे भी निरग्र॑न्य शव्द मिलता है ।२७ सातवीं शताब्दी में चंगाल में निम्न न्‍य सम्प्रदाय प्रमावशाली था दशवेकालिकर* , उत्तराष्ययन३* और सूत्रकृताज ३५ आदि आगमों में जिन- शासन, जिनमार्ग, जिनवचन शब्दों का प्रयोग हुआ है । कितु 'जैनधमं” इस शब्द का प्रयोग आगम ग्रन्थों में मही मिलता । सर्वेप्रथम 'जैन' दाब्द का प्रयोग जिनमद्रगणौ क्षमाश्रमण कृत विशेषावश्यकभाष्य में देखने को प्राप्त होता है ॥2९ उसके पद्चात्‌ के साहित्य में जैनधर्म दब्द का प्रयोग विशेष रूप से व्यवहृत हुआ है । मत्स्यपुराण?3 में 'जिनधर्म' और देवी भागवत ४ में जैनधर्मः का उल्लेख प्राप्त होता है । तासयं यह है कि देशकाल के अनुसार शब्द बदलते रहे है, कितु शब्दों के यदलते रहने से जैनधरमे' का स्वरूप अर्वाचीन नही हो सक्ता । परम्परा की दृष्टि से उसका सम्बन्ध मगवान ऋपभदेव से है । जिस प्रकार शिवं के नाम पर शेवधर्म, विष्णु के नाम पर यैष्णवर्ष्म और २५ इसमे वियापरा हो हंति ज्ति निग्गंठेसु पि मे करे। --प्राचीन भारतीय अमिल्लेसों का अध्ययन, द्वि० सण्ड, पृ० १६ २६ पट्टावली समुच्च॒य, तपागच्छ पट्टावली, पृ० ४५ २७ (फ) फन्याकौपीनोत्तरा सद्धादीनां त्यागिनों ययाजातरूपधरा निप्र नया निष्प रिप्रहा इति संवर्तशुति: । +-वत्तिरीय-आरपणप्पक १०1६३, सायण माप्य, माग-२, बू० ७७८ (ख) जावालोपनिपद्‌ হল द एज आव इस्पीरियल कन्नौज, पृष्ठ २८८ २६ (क) सोच्चाणं जिण-सात्तणे--दशवेकालिक ८।२५ (ख) लिणमयं, वही ६।३।१५ ३० लिणवयणे मणुरत्ता जिणवयणं जे करेति भविण 1 --उत्तराष्ययन, ३६1२६४ ३१ सूत्रकृतांग ३२ (को जेणं तित्यं“-विशेषावश्यकमाष्य, गा० १०४३. (ग्य) तिष्यं-लष्टणं--यही, गा० १०४५-१०४६ है मत्स्यपुराण ४1२३॥५४ ३४ पत्वाप मोहयामास रजिपुध्रान्‌ वुहुस्पतिः ॥ लिनपमं समास्याय वेद बाट ঘ বিলিন ॥ द्दूमरुप घरं सोभ्य योघयन्तं एतेन तान्‌ ! जनप इतं स्येन, यजे निन्दाषरं तथा 1 --दैयौ जामय ८१३६४




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