तत्व चिंतामणि | Tatva Chintamani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ न्टखध-चिन्तामणि खोजसे यह बात सिद्ध हो गयी किं उसकी स्थिति शरीरम है, ज्ञानीकी सत्ता ब्रह्मसे भिन्न है, नहीं तो खोजनेवाटा कौन ओर स्थिति किसकी £ ओर यदि खोजना ही चाह तो केवट शरीरम ही क्यो खोजे, पाषाण या व्रक्षोमे उसे क्यों न खोजे केवर रारीरमे दूदनेसे उसका शरीरम अहंभाव सिद्ध होता है । इससे तो वह अपने आप ही ष्ुद्र बन जाता हं । हा ! यदि साधक शरीरसे अलग होकर ८ द्रष्टा बनकर ) पत्थर ओर ब्क्षादिके. साथ अपने दारीरकी লাহেযনা करता इजा विचार करे तो इससे उसे सम होना सभव ह । जसे श्रीमीताजीमे कहा हैः- नान्यं गुणेभ्यः कतारं यदा द्र्टानुपर्यति । गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ ( १४।१९ ১ जिस काल्मे द्रष्टा तीनों गुणोके सिवाय अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता है अर्थात्‌ गुण ही गुणोंमें बतते हैँ, ऐसा देखता हे ओर तीनों गुणोसे अति परे सच्चिदानन्दखरूप मुझ परमात्माको तत्तसे जानता है, उस कालमें वह पुरुष मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है ।! परन्तु जो कहता है कि 'मुक्षे ज्ञान नहीं हुआ! वह भी ज्ञानी नहीं है क्योंकि वह स्पष्ट कहता ই | जो कहता है कि “मुझे ज्ञान




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